सोमवार, 30 अक्तूबर 2017

आहिस्ता चल, आहिस्ता चल, अाहिस्ता चल

जिंदगी के मजे ले,

मजे में जी तू जिंदगी।

आहिस्ता चल.......।

सांसों की लय थमे,

इससे पहले तू जी ले जिंदगी।

आहिस्ता चल........।

कांटे मिले या फूल

ना मुरझाना तू, इतराना तू,

सधे हुए कदमों से चल

मिल जायेगी मंजिल।

ना दौड़ इतना तेज कल पछतावा हो,

ये सोच-सोच के रोना आये जी ना जिंदगी।

आहिस्ता चल, आहिस्ता चल, आहिस्ता चल.

जिंदगी के मजे ले,

मजे में जी तू जिंदगी।

आहिस्ता चल...।

- तरु श्रीवास्तव

सोमवार, 16 अक्तूबर 2017

गजल
दम निकलने वाला था आप आ गए
घड़ी भर को जिंदगी हम पा गए।
जुस्तजू आपकी कब से रही
आप आए नहीं हम मुरझा गए।
खिली-खिली सी चांदनी क्या करेंगे हम
कोई साथी नहीं हम तन्हा रह गए।
फितरत ना जानते थे घर में पनाह दी
अपने ही घर में हम बेगाने रह गए।
दर्द इतना जमाने से हमको मिला
मोम से धीरे-धीरे शीला बन गए।
हम भटकते रहे बस इधर से उधर
घर बसा ना सके, आप जब से गए।
दम निकलने वाला था आप आ गए
घड़ी भर को जिंदगी हम पा गए।
- तरु श्रीवास्तव

यह कैसी अराधना...
- तरु श्रीवास्तव

शक्ति की अधिष्ठात्री दुर्गा का पर्व हर साल की भांति इस साल भी पूरे हर्षोल्लास के साथ संपन्न हो गया. इस दौरान पूरी श्रद्धा के साथ पूरे नौ दिनों तक शक्ति के विभिन्न रूपों की अराधना की गयी. शक्ति की अराधना यह दर्शाती है कि भारतीय संस्कृति में नारी का स्थान सर्वोपरि है. परंतु आज की स्थिति कुछ और ही सच बयां करती है. आज हमारे देश में कन्या का जन्म लेना अभिशाप समझा जाता है. बेटियों को बेटों से कमतर समझा जाता है. देश के कई राज्यों का तो यह हाल है कि जन्म से पहले ही बेटियों को कोख में मार देना समझदारी समझी जाती है. न तो कोई इसे जघन्य अपराध मानता है, न ही इसके लिए उसे अफसोस ही होता है. क्या ये दोनों परिस्थितियां विरोधाभास का संकेत नहीं देतीं? क्या ये उन प्रश्नों को जन्म नहीं देती कि नारी को शक्ति मानने और उसकी पूजा करने वाले देश में अाखिर बेटियां कब से बोझ मानी जाने लगीं कि उनका जन्म लेना भी माता-पिता के लिए असह्य होने लगा है? वे कौन से कारण हैं जो इस दूषित मानसिकता को पोषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं?

बेटियों को बोझ मानने वाले इस समाज के पास क्या इन बातों का जवाब है कि उनकी उत्पत्ति मां के गर्भ से ही क्यों हुई? उन्हें अपना दूध पिलाकर मां ने ही क्यों बड़ा किया? सृजन की क्षमता प्रकृति ने केवल नारी को ही क्यों दी है? भारतीय मनीषियों ने नारी को ही शक्ति स्वरूपा कहकर क्यों संबोधित किया? हम शक्ति के रूप में दुर्गा की ही पूजा क्यों करते हैं? ब्रम्हा, विष्णु, महेश की क्यों नहीं? भौतिकता के धरातल पर खड़े तथाकथित आधुनिक व ज्ञानी समाज से इन प्रश्नों का उत्तर जानना अत्यंत आवश्यक है. क्योंकि जिस युग को हम पिछड़ा मानते हैं, उस युग में नारी सर्वोच्च आसन पर विराजमान थी. तब न पुत्र जन्म पर हर्ष का अतिरेक दिखायी देता था, न ही पुत्री के जन्म पर विषाद की रेखाएं चेहरे पर उभर आती थीं. स्त्री तथा पुरुष दोनों को ही समान रूप से अधिकार और सम्मान प्राप्त थे. यहां यह प्रश्न उठ सकता है कि मेरे पास इस दावे का कौन सा प्रमाण उपलब्ध है, जिस आधार पर मैंने स्त्री-पुरुष को एक समान ठहरा दिया? तो इसका उत्तर केवल इतने भर से मिल जाता है कि अगर ऐसा नहीं होता तो शिव के साथ शक्ति को पूजने का विधान नहीं होता.

इसे हम विडंबना नहीं तो और क्या कहेंगे कि जिसे हम अति विकसित युग मानते हैं, उसी युग में स्त्रियों को अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. क्या हम समाज की इस कुत्सित मानसिकता को मानवता के पतन का संकेत मानें या इस युग में होने वाले प्रलय का संकेत या फिर दोनों ही? मानवता मर गयी, तभी तो हमने अजन्मे को मारना प्रारंभ कर दिया. जब जननी ही नहीं बचेगी तो सृजन कौन करेगा? ऐसी स्थिति में प्रलय अवश्यंभावी है. आने वाले समय के भयावह सन्नाटे को आज महसूस किया जा सकता है, जहां न बच्चे की किलकारियां होंगी, न ममता की थपकियां, न हंसी-ठिठोली से गूंजते घर-आंगन, न शादी की शहनाई, न मन में कोई आस. चारों ओर बस थके-हारे हाड़-मांस के पुतलों की दबी-दबी सी कराह होगी, सिसकी होगी और होगी मरघट सी खामोशी.

आधुनिकता की अंधी दौड़ में बेटियां अगर बोझ बन चुकी हैं, तो नवरात्र में देवी अराधना का क्या अर्थ?

शनिवार, 14 अक्तूबर 2017



जिस रोज से आये हो

दिन कैसे गुजरता था, तन्हा, गुमसुम रह के
हर पल दिल गाने लगा, जिस रोज से आये हो।

बेमकसद कितने थे, आवारा बादल से
ठहराव सा आया है, जिस रोज से आये हो।

ख्वाबों के बगीचे में, अल्हड़ सी विरानी थी
सतरंगी सपने सजे, जिस रोज से आये हो।

वही तपती दोपहरी थी, वही बेरंग आठों पहर
रिमझिम सावन बरसा, जिस रोज से आये हो।

हर मौसम जलते थे, फागुन हो या सावन हो
हैं जेठ में भीगे हुए, जिस रोज से आये हो।

तारे अनगिन थे यहां, कोई चांद ना दिखता था
हर रात पूनम सी हुई, जिस रोज से आये हो।

थे भीड़ में भी तन्हा, सब लगते बेगाने थे
तुम अपने से लगने लगे, जिस रोज से आये हो।

ना पढ़ना आता था, ना लिखना आता था
नवगीत लगे रचने, जिस रोज से आये हो।
- तरु श्रीवास्तव

गुरुवार, 12 अक्तूबर 2017

सुंदर दुनिया 

कितनी सुंदर वो दुनिया है 
संघर्ष नहीं जहां जीने में 
पीले पत्ते झर जाते हैं 
नव पल्लव खिल खिल जाते हैं 
इच्छा मेरी भी होती है 
एक ऐसी ही दुनिया बनाने की 
राहों में निचे बिछ कर हम 
अगुआई करें तरुणाई की 
तरु श्रीवास्तव