रविवार, 31 दिसंबर 2017

व्यंग्य
संकल्प
मिश्राइन का तीन मंजिला घर देखकर गुप्ताइन के करेजा पर रोज ही मोटका अजगर रेंगता था। अइसा नहीं था कि गुप्ताइन कवनो किराया के घर में रहती थीं। लेकिन कहां पांच बड़े-बड़े कमरों वाला तीन मंजिला घर, आ कहां तीन कमरे का एक छोटा सा घर। उसमें भी बाहर बिना पलस्तर की दीवार आ लैट्रीन-बाथरूम के ऊपर एस्बेस्टस की छत।
जब भी गुप्ताइन मिश्राइन के घर जातीं तो उनकी आवभगत से जितना प्रभावित होतीं, उनके टाइलस लगे फर्श और मंहगे सोफासेट को देखकर मन ही मन उतनी ही आहें भरतीं। काश कि गुप्ताजी भी खूब पढ़-लिखकर मिश्राजी की तरह आयकर अधिकारी बन जाते, अधिकारी ना सही त इंसपेक्टर ही हो जाते तो उनके ठाठ-बाट भी मिश्राइन की तरह होते तो सही। तीन मंजिला ना सही, दु मंजिला घर त होता ही। लेकिन गुप्ताजी को तो पढ़ने में मन ही नहीं लगता था।
साथ ही त पढ़ते थे मिश्राजी आ गुप्ताजी। जहां मिश्राजी मैट्रिक में टाॅप किए थे, वहीं गुप्ताजी मैट्रिक में तीन बार फेल हो गए थे। हार-पाछ के गुप्ताजी के बाबूजी ने उनके लिए एक किराने की दूकान खोल दी और गुप्ताइन से बिआह कर दिया। साल भर की भीतर ही छोटे गुप्ताजी उन दोनों के घर पधार गए थे। जब तक गुप्ताजी के दोनों भाई कुंवारे थे, वे दोनों बाबूजी के घर में ही रहे। इसीलिए ना घर छोटा लगा, ना पैसे की कमी अखरी। लेकिन जब गुप्ताजी के दोनों भाइयों का भी बिआह हो गया तो आए दिन कलह होने लगा। रोज-रोज के किचकिच से तंग आकर बाबूजी ने अपना तीन मंजिला घर बेच दिया आ तीनों बेटों को एक-एक घर खरीद दिया। आ दोनो पति-पत्नी गांव जाकर खेती-बाड़ी कराने लगे।
शुरू-शुरू में त अपनी अकेली गृहस्थी में गुप्ताइन को बड़ा आनंद आया। कुल पांच प्राणी - दो लड़का, एक लड़की आ दोनों पति-पत्नी, का काम करते गुप्ताइन फूली ना समातीं। अब त न किसी का रोक था न टोक। अपनी गृहस्थी की अकेली मलकिनी थीं। लेकिन साल भर के भीतर ही अकेले रहने का सारा मजा गायब हो गया। सीमित आमदनी में घर चलाने की मजबूरी आ गई। शुरू में त गुप्ताजी ने गुप्ताइन को अपनी दूकान की हालत बताई ही नहीं, लेकिन आखिर कब तक छुपाते। आखिर गुप्ताइन को पता चल ही गया कि गुप्ताजी सिर्फ पढ़ने-लिखने में ही कच्चे नहीं हैं बल्कि दूकान-दौरी में भी कच्चे ही हैं। इस बात का पता चलते ही गुप्ताइन ने दूकान संभालने की कमान अपने हाथ में ले ली। दूकान चल भी पड़ी, लेकिन उससे इतनी आमदनी नहीं होती थी कि मिश्राजी के ठाठ की बराबरी की जा सके।
ऐसा नहीं था कि मिश्राजी कवनो घूसखोर थे, लेकिन कवनो साध भी नहीं थे। बिना मांगे जो कुछ भी मिल जाता था, उसे भोले बाबा का परसाद समझकर घर पर भिजवा देते थे। दूसरे, उनकी पत्नी भी हाईस्कूल की हेडमास्टरनी थीं, सो उनके पास तो तीन तरफा आमदनी थी। देखते-देखते ही उन्होंने गुप्ताजी के घर के सामने की बड़ी सी खाली पड़ी जमीन खरीद ली आ साल भर में ही तीन मंजिला घर पिटवा लिया। जैसे-जैसे मिश्राजी का घर बनता जा रहा था, गुप्ताइन की छाती फटी जा रही थी।
मिश्राइन एक भली महिला थीं, सो अपने आस-पड़ोस के लोगों से जल्द ही उनके रिश्ते मधुर बन गए। गुप्ताइन भी गाहे-बगाहे मिश्राइन के पास चली जाती थीं, मिलने कम घर निहारने ज्यादा। खैर, एक दिन बातों-बातों में गुप्ताइन ने मिश्राइन से अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने का उपाय पूछ डाला। उपाय के तौर पर मिश्राइन ने गुप्ताइन को अपनी दूकान पर किराने के सामान के अलावा महिलाओं के मेकअप, चूड़ी, कपड़े आदि बेचन का सुझाव भी दे डाला। मिश्राइन का सुझाव काम भी कर गया। अब गुप्ताइन को पहले के मुकाबले दोगुनी आमदनी होने लगी थी। वह अब पहले से ज्यादा खुश रहने लगी थीं। लेकिन यह आमदनी इतनी भी ज्यादा नहीं थी जो उनके घर को तीन मंजिला घर में बदल सके आ मिश्राइन के हैसियत की बराबरी कर सके। लेकिन बहुत जल्द गुप्ताइन को अपनी आमदनी दिन दूनी रात चैगुनी बढ़ाने का एक सूत्र हाथ लग ही गया।
हुआ कुछ अइसा, एक दिन गुप्ताइन के दूर की मामी उनसे मिलने आईं। गुप्ताइन का हाल उनसे देखा न गया, सो उन्होंने अपने पति से कहकर गुप्ताजी को ठेकदारी का काम दिलवा दिया। गुप्ताइन के मामा सड़क बनाने के लिए ठेके लिया करते थे, लेकिन उम्र बढ़ने के कारण अब वो उतनी भाग-दौड़ नहीं कर पा रहे थे। दूसरे, उनके बच्चे विदेश में बस गए थे। अकेलापन और पैसे कमाने के मोह में उन्होंने गुप्ताजी को अपने साथ काम पर लगा लिया था। यह गुप्ताइन की कड़ी हिदायत का ही असर था कि इस काम में गुप्ताजी को बरकत होने लगी।
असल में जिस पहली जनवरी को गुप्ताइन की मामी ने गुप्ताजी को इस काम के बारे में बताया था, बस उसी पल गुप्ताइन ने गुप्ताजी को यह संकल्प दिला दिया था कि आज से बेईमानी परमो धरमः। सड़क चाहे छह महीने में टूट जाए, लेकिन उनका टाइल्स वाला तीन मंजिला मकान दो साल में बन जाना चाहिए।
देखते-देखते गुप्ताजी के घर पर भी लक्ष्मी बरसने लगी। जिस तीन मंजिला घर के लिए गुप्ताइन बरसों से तरस रही थीं, गुप्ताजी के ठेकेदारी शुरू करने के पांच बरस के भीतर ही वह तीन-तीन तीन मंजिला घर की मलकिनी बन चुकी थीं। शायद गुप्ताजी ने एक जनवरी को लिए अपने संकल्प को कुछ ज्यादा ही सख्ती से अमल में लिया था।
आज तो गुप्ताइन के पैर जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे। जिस मोहल्ले में मिश्राइन के घर और उनके ठाठ-बाट की चर्चा होती थी, आज उसी मोहल्ले में बच्चे-बच्चे की जुबान पर गुप्ताजी आ गुप्ताइन के घर का नाम था। असल में गुप्ताजी अपने काम यानी पैसे कमाने में इतना ज्यादा मगन हो गए थे कि उचित-अनुचित सब ताक पर रख दिया था और इसकी भनक आयकर विभाग को भी लग गई थी। दोस्ती के लिहाज से कई बार तो मिश्राजी ने यह छापा रूकवा दिया था और गुप्ताजी को संभलकर पैसे कमाने की सलाह दी थी। लेकिन गुप्ताजी अपने संकल्प को पूरा करने में इतने मगन थे कि मिश्राजी की बातें उनके कानों तक पहुंचती ही नहीं थी। खैर, जब विभाग की ओर से छापा डालने का दबाव पड़ने लगा तब हारकर मिश्राजी ने हरी झंडी दिखा दी। खुद के ऊपर कोई दोष न आए इसलिए मिश्राजी सपरिवार छुट्टी मनाने सिंगापुर चले गए और बाकी के अधिकारियों को गुप्ताजी के यहां छापा माने का निर्देश दे गए।
आज ही दिन में गुप्ताजी के यहां आयकर का छापा पड़ा था। छापे में ज्यादा कुछ तो नहीं मिला था। एक करोड़ रुपया नकद आ पांच किलो सोना के सिवा आयकर विभाग को और कुछ भी नहीं मिला था। लेकिन इस बात ने गुप्ताइन का रूतबा जरूर बढ़ा दिया था। आज तो पूरे मोहल्ले में उनके धनवान होने की चर्चा थी। और हो भी क्यों न, सच की जगह झूठ का परचम जो आज बुलंद हुआ था। छापा पड़ना हमारे-आपके लिए शर्म की बात हो सकती है, लेकिन इस कारण गुप्ताइन की आज बरसों की इच्छा जो पूरी हुई थी। आज पूरे मोहल्ले के चर्चा का केंद्र वही तो थीं। आज मिश्राइन की जगह उनके ठाठ-बाट की चर्चा थी।
हां, यह और बात थी की इस छापे को डलवाने के लिए गुप्ताजी ने ही मिश्राजी को कहा था। इस एवज में गुप्ताजी ने मिश्राजी को मिठाई खाने के लिए 25 लाख रुपए दिए थे और सिंगाुपर घूमने का टिकट भी।
सुनिए साहब, अभी मेरी बात पूरी नहीं हुई है। इस छापे के साल भर के भीतर ही गुप्ताजी एक क्षेत्रीय राजनैतिक पार्टी के वरिष्ठ पद को सुशोभित कर रहे थे। अब तो बस गुप्ताइन को उस दिन का इंतजार है, जब गुप्ताजी को अगले चुनाव में उनके मनपसंद चुनाव क्षेत्र से टिकट मिलेगा और वो मंत्री बनकर सत्ता का सुख भोगेंगे। तभी जाकर एक जनवरी को लिया गया संकल्प सही माने में पूरा होगा।
- तरु श्रीवास्तव

शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

बटवृक्ष
घनी आबादी सा होता प्रतीत
एक बटवृक्ष,
जिसकी छाया तले
अनगिनत, अनजाने राहगीरों ने
बिताये होंगे केवल अपने कुछ पल
असंख्य पौधे मुरझाये होंगे
खोकर अपने अस्तित्व को
कितनी अट्ठासें ली होंगी इसने
देखकर अपने विशाल शरीर को
इसकी शाखा से
अनेक द्वितीयक जड़ें निकलकर
समाई होंगी धरती में
करने को सुरक्षित अपना भविष्य
एक बटवृक्ष।
इसकी मीलों तक फैली जड़ें
दूर-दूर तक फैली शाखायें
आभास देती होंगी हरियाली का
काल के सम्मुख नतमस्तक
आज बनकर खड़ा है
केवल एक ठूंठ
अपनी समृद्धि को इतिहास में समेटे हुए
जगत के समक्ष
एक बटवृक्ष।
- तरु श्रीवास्तव

शनिवार, 16 दिसंबर 2017

प्रेम का अर्थ

बहुत सच है
मैं डूब चुकी हूं तुम्हारे प्रेम में आंकठ
तुम्हारे सामने आते ही खो जाते हैं मेरे शब्द
पसर जाता है मौन का साम्राज्य
शब्दश: पढ़ लेती हूं तुम्हारे मनोभावों को
तभी तो जान पाई हूं तुम्हारी इन चाहों को
नहीं, तुम्हें मुझसे प्रेम नहीं
तुम्हें चाहिए मेरी कमनीय काया
अपनी प्यास बुझाने को
तुम शायद प्रेम का अर्थ नहीं जानते
मेरी भावनाएं नहीं पहचानते
मैं जानती हूं मेरा यह कदम
मुझे ले जायेगा तुमसे बहुत दूर
चाहकर भी नहीं लौट सकूंगी तुम्हारे पास
खिंच जाएगी हमारे बीच एक दीवार
फिर न कर सकूंगी कभी किसी और से प्यार
हां,
यह विरह वेदना स्वीकार्य है मुझे
परंतु, मैं ऐसा नहीं होने दूंगी
नहीं,
मैं प्रेम का अर्थ नहीं खोने दूंगी
नहीं,
मैं प्रेम में वासना की अराधना
नहीं होने दूंगी
नहीं होने दूंगी
नहीं होने दूंगी।
- तरु श्रीवास्तव

बुधवार, 13 दिसंबर 2017

मिल जाते यदि दोबारा

तुम मिल जाते यदि दोबारा
सब दूर अंधेरा हो जाता
जीवन को मकसद मिल जाता
आशा का सबेरा हो जाता।
तुम मिल जाते ---------

तुम प्राण मेरे, तुम सहचर हो
तुम बिन जीना भी क्या जीना
तुम जाते जो अभी यहां
सांसों को सहारा मिल जाता।
तुम मिल जाते ---------

सिमटी सी अपनी दुनिया है
बस तुम हो प्रेम की यादें हैं
जो पुनर्मिलन अभी हो जाता
रीतापन मन का भर जाता।
तुम मिल जाते ---------

सपने टूटे, अरमान मिटे
सूखा, बंजर सा जीवन है
तुम पास मेरे जो जाते
जीवन में सावन जाता।
तुम मिल जाते ------

गुम तुम भी, गुम मैं भी हूं
पसरा-पसरा सन्नाटा है
अधरों को मुखर जो कर देते
गम मन का तिरोहित हो जाता।
तुम मिल जाते ---------
- तरु श्रीवास्तव




गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

आकांक्षा
मौन समर्पण से इतर,
आकांक्षाओं के मुखर होते ही
खंडित हो जाती है
वर्षों से सहेजी गयी
दैवी प्रतिमा,
मर हर बार ही उलझकर रह जाता है
अनुत्तरित प्रश्न में,
खंडित ही रहूं,
या
समर्पण को नियति मान
दैवी पर पर विराजमान
- तरु श्रीवास्तव

सोमवार, 4 दिसंबर 2017

इसे प्रेम कहते हैं
शायद,
इसे ही प्रेम कहते हैं
तुम संग
हर रात मधुमास सी होती है
चांदनी की शीतल-धवल किरणें
मेरे कलेजे पर
लोट-लोट जाती हैं सांप सी
तुम बिन
शायद,
इसे भी प्रेम कहते हैं।
- तरु श्रीवास्तव