गुरुवार, 12 दिसंबर 2019

कहानी


कहानी

सरकते हाथ

कार्यालय से घर जाने के लिए निकली ही थी कि सामने से आ रहे दो लोगों पर मेरी नजर पड़ी. वे पुरुष व स्त्री थे. पुरुष की उम्र 45-50 के बीच थी. दाढ़ी, बाल खिचड़ी हो चले थे. सफेद-काले का मिश्रण. स्त्री 22-24 वर्ष की युवती थी. कांधे पर फैले बाल, बड़ी-बड़ी आंखें, होठों पर लिपिस्टिक लगी थी. स्टाइलिश फ्रॉक में वह बहुत आकर्षक लग रही थी. अधेड़ होने के बावजूद पुरुष भी आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी था. पुरुष का हाथ स्त्री के कंधे पर था, दूर से ऐसा ही दिख रहा था. युवती अधेड़ उम्र के पुरुष से कुछ बातें कर रही थी. क्या? यह सुनाई नहीं दिया, संभवत: दूर होने की वजह से. निकट आने पर मैंने देखा, पुरुष मुस्कुरा रहा था. सहसा मेरी दृष्टि युवती के कांधे पर रखे पुरुष के हाथ पर गई. वह अब वहां नहीं था. सरक कर युवती के कांधे से नीचे बगल में आ गया था. मानो कुछ टटोल रहा हो. कुछ विचित्र सा लगा मुझे यह देखकर. मैंने अपनी दृष्टि युवती के चेहरे पर गड़ा दी. वह अब पुरुष से बातें करने में मगन थी. अब मैंने पुरुष के चेहरे को देखा. उस पर पहले सी मुस्कान अब भी तैर रही थी. एक बार पुन: मेरी दृष्टि पुरुष के हाथ पर गयी. अब वह वहां नहीं था. बगल से थोड़ा आगे सरक आया था. हाथों को सरकते मैंने साफ-साफ देखा. अनजाने में नहीं अपितु, जानते-बूझते किसी तलाश में. ऐसा मैंने महसूस किया. यह क्या? वह तो युवती के स्तन के ठीक नीचे पहुंच चुका था. उसकी अंगुलियां फैलकर स्तनों को छूने लगी थीं और उसे धीरे-धीरे दबाने भी लगी थीं. युवती के चेहरे पर असमंजस, लज्जा या घृणा के कोई भाव नहीं थे. वह पूर्ववत निर्विकार भाव के साथ पुरुष से बातें करने में मगन थी. पुरुष के चेहरे पर वही मुस्कान. विद्रूपता भरी या सहज, कह नहीं सकती, क्योंकि मैंने अपनी दृष्टि वहां से हटा ली थी. आगे भी निकल आयी थी उन दोनों को पीछे छोड़. हम तीनों की पीठ ही एक-दूसरे को देख रही थी अब.

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आमतौर पर मैं तेज चलती हूं, पर जब किसी सोच में होती हूं तो मेरी चाल अपने आप धीमी हो जाती है. यही इस बार भी हुआ. 10 मिनट का रास्ता 15 मिनट में तय किया. मेट्रो स्टेशन पहुंचकर भी वही दोनों मेरे मानस पर छाये रहे. युवती की सहजता मुझे कचोट रही थी, तो पुरुष का हाथ विषधर प्रतीत हो रहा था. मेट्रो आयी और मैं चढ़ गयी. पूरे रास्ते मैं यही सोचती रही कि क्या बीच रास्ते कामुकता का यह प्रदर्शन उचित था? क्या जितना बुरा मुझे लगा, दूसरों को भी लगा होगा? संभवत: लगा हो, पर मेरी तरह उन्होंने भी दूसरे के मामले में बोलना उचित न समझा हाे? क्या वह स्त्री और पुरुष, पति-पत्नी थे? नहीं संभवत: नहीं? उनके चेहरे के भाव से ऐसा प्रतीत नहीं हुआ मुझे. पति-पत्नी अपने नितांत निजी पलों को यूं सार्वजनिक क्यों करेंगे भला? तो क्या दोनों प्रेमी-प्रेमिका थे? ऐसा भी मैंने महसूस नहीं किया? प्रेम में होना तो आपको ऊंचा उठा देता है, वहां ऐसे प्रदर्शन की आवश्यकता कहां पड़ती है, जहां आते-जाते लोगों की दृष्टि आपके निजी पलों में सेंध लगाती रहे. फिर कैसा संबंध है यह. कहीं पुरुष उस युवती का बॉस तो नहीं. हो सकता है. फिर तो यह भोग की चाह और त्वरित गति से आगे बढ़ने की महत्वकांक्षा से पनपा संबंध है. क्या नाम होना चाहिए ऐसे संबंधों का? नहीं, नहीं, ऐसा भी नहीं है. ऐसा होता तो है, पर उसका सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं होता. वह तो बंद कक्ष के भीतर पनपता है, खिलता है और समय के साथ मुरझा जाता है या सार्वजनिक हो जाता है. कई बार विवाह-बंधन में भी परिणत हो जाता है. मेरा मस्तिष्क अनेक प्रकार के सोच-विचार में उलझ गया था. इसी बीच मेरा स्टेशन आ गया और मैं मेट्रो से बाहर आ गयी. घर के रास्ते में भी मैं इसी सोच में डूबी रही. क्या संबंध होगा दोनों के बीच?
इस बीच एक अच्छी बात यह हुई कि घर पहुंचते-पहुचते मैंने उन दोनों के बीच के संबंध की कड़ी तलाशनी बंद कर दी. अपनी सोच दूसरी दिशा में मोड़ दी. मैंने दोनों को आधुनिक की संज्ञा दी. अपने मन को समझाया कि ऐसा होना बुरी बात नहीं. बंद कमरे की जगह खुले में प्रेम करने में क्या बुराई है? बंधनों में भी कहीं प्रेम पलता है? उसे तो खुला आकाश चाहिए. लोगों के बीच प्रदर्शन की हिम्मत चाहिए.

थोड़ी देर शांत रहने के बाद मेरे मन में फिर कुलबुलाहट हुई. इस बार लाख समझाने के बाद भी वह नहीं माना. पुरातन सोच का जाे ठहरा. प्रेम को नितांत निजी मानता है. एक बार फिर मन उलझ गया था. अब मैं केवल युवती के पक्ष से सोच रही थी. पुरुष मेरे मस्तिष्क से निकल चुका था. इस बार स्त्री के चेहरे के मनोभाव मैंने नहीं पढ़े. सीधा उसके हृदय में झांक कर देखा. वहां भी कोई असमंजस नहीं दिखा. दु:ख, पश्चाताप के कोई निशान भी नहीं दिखे वहां. हां, विद्रोह अवश्य दिखा मुझे. मुझ जैसे पुरातन सोचवालों से. आधुनिक कहलाने की चाह दिखी. इसी चाह में मुझ जैसी पुरातन सोच को डूबा देने की तीव्र इच्छा दिखी. पर प्रेम नहीं दिखा वहां.

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अब सबकुछ साफ था. इच्छापूर्ति के लिए कोई भी स्थान उचित है. इस विद्रोह का प्रदर्शन कहीं भी हो सकता है. तथाकथित आधुनिक मानस को बंधनों की, चारदीवारी की क्या आवश्यकता. यहां प्रेम की भी आवश्यकता नहीं है.
मेरी उलझन सुलझ चुकी थी. स्त्री-पुरुष के बीच सहमति थी. अभी प्रसन्न्ता में झूम ही रही थी कि इस पहले को मैंने सुलझा लिया. मन फिर से उलझ गया. क्या यह आधुनिकता है? क्या स्त्री सचमुच आधुनिक है? खुद को भोग की वस्तु बना देना, आधुनिकता कैसे हो गया? पुरुष तो सदैव स्त्री को भोगना चाहता है. तो क्या स्त्री आज भी दासी है? आधुनिक दासी, भोग की वस्तु? क्या शरीर से परे उसका कोई अस्तित्व नहीं? क्या स्वतंत्रता का अर्थ यही है? क्या शरीर ही सबकुछ है? विचार, प्रेम, सोच कुछ भी नहीं.

अभी भी मैं अपने प्रश्न का उत्तर तलाश रही हूं. आपको मिला क्या?
- तरु श्रीवास्तव

गुरुवार, 7 मार्च 2019

कविता मैं स्त्री

कविता

मैं स्त्री


मैं स्त्री हूं
देह-आत्मा से परे मैं शक्ति हूं,
अधरों की मुस्कान
जगत की जननी हूं,
मैं त्याग, तपस्या, समर्पण, करुणा ही नहीं
पूरी की पूरी संस्कृति हूं,
मुझसे पृथक कोई अस्तित्व नहीं
मैं ही प्रकृति हूं.
मैं स्त्री हूं
देह-आत्मा से परे मैं शक्ति हूं.

- तरु श्रीवास्तव

गुरुवार, 10 जनवरी 2019

कहानी


शकुंतला


आज चौका छूने की रसम है. बुझे मन से शकुंतला उठकर तैयार होने लगी. सिंदूर मांग में भरते-भरते एक पल के लिए उनका हाथ रूक गया. सोचने लगी, क्या सचमुच ब्याहता हैं हम? सिर्फ मांग में सिंदूर भरने से कोई ब्याहता हो जाता है क्या? उसके लिए तो पति का साथ चाहिए. क्या मेरे भाग्य में है ऐसा? सिंदूर हाथ में लिए सोचती रही. कहीं ऐसा तो नहीं कि हम  उनकी दूसरी पत्नी  हैं ? कहीं उनका किसी अन्य स्त्री के साथ प्रेम संबंध तो नहीं? कुछ समझ ही नहीं आ रहा था. किससे कहे, क्या कहे? आंखों से आंसू टपक पड़े थे.
अरे बहू तुम रो रही हो? नैहर की याद आ रही है? क्या करोगी, लड़कियों का भाग्य ऐसा ही होता है. सास निर्मला के मुंह से सहानुभूति के बोल सुन शकुंतला के  सब्र का बांध टूट गया था. फफक पड़ी थी वो.
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बिदाई के बाद नैहर से ससुराल आये पंद्रह दिन हो गये थे, लेकिन पति वीरेंद्र ने एक बार भी फोन नहीं किया था अब तक. अब चिंता होने लगी थी शकुंतला को. हिम्मत करके उसने निर्मला से पूछ ही लिया, अम्मांजी सच-सच बताइएगा. कहीं इनका किसी से प्रेम संबंध तो नहीं? इनके जीवन में कोई और स्त्री तो नहीं? कहीं हम  इनकी दूसरी पत्नी तो नहीं? क्यों इन्होंने उस रात एक बार भी बात नहीं की हमसे? ना ही ये हमें लेने मेरे घर आये, ना स्टेशन. क्या बात है, कुछ बताइये तो सही. यदि ये इस शादी से गुस्से में हैं तो हमें उनके पास भेज दीजिए, हम अपने तरीके से इन्हें मनाने की कोशिश करेंगे. एक के बाद एक प्रश्न करती चली गयी शकुंतला अपनी सास से. लेकिन निर्मला एक भी प्रश्न का उत्तर दिये बिना उसे समझाने लगी. चिंता की कोई बात नहीं है बहू. थोड़ा शर्मिला है. आज शाम जब घर आ जायेगा तो पूछ लेना? सुबह ही फोन आया था. आज घर आ रहा है.
क्या आज लौट रहे हैं ये? एक अनचाही खुशी तैर गयी थी शकुंतला के चेहरे पर.
सचमुच शाम को वीरेंद्र घर आ गये थे. नजर उठाकर शकुंतला को देखा भी था. रात में सोने के समय शकुंतला ने जब वीरेंद्र से बात करनी चाही तो वे बिना कुछ बोले ही सो गये. किंतु शकुंतला को रातभर नींद नहीं आयी. आती भी कैसे भला. रातभर में उसने निश्चय कर लिया था कि कल उसे क्या करना है. सुबह उठते ही अपना सामना बांधना शुरू कर दिया. सात बजे तक जब वो कमरे से बाहर नहीं निकली तो निर्मला बुलाने चली आयी. किंतु दरवाजे पर पहुंच उसके कदम ठिठक गये.
अरे बहू, वीरेंद्र के साथ कहीं बाहर जा रही हो क्या. अम्मांजी क्या आप हमें अपनी बहू मानती हैं? अरे ये कैसा प्रश्न है? तुम वीरेंद्र की पत्नी हो, इस नाते मेरी बहू ही हुई. तो फिर अब तक हमें इनका सच क्यों नहीं बताया गया? निर्मला को जब कोई बहाना नहीं सूझा ताे वह बाहर जाकर शकुंतला के ससुर सुरेंद्र व देवर राजेंद्र को बुला ले आयी.
सुरेंद्र ने जो बात बतायी, उसे सुन शकुंतला के पैरों तले की जमीन ही खिसक गयी. बहू, असल में वीरेंद्र में बुद्धि की थोड़ी कमी है. बुद्धि कम का मतलब, हम समझे नहीं. शकुंतला ने पूछा. मतलब वह....... इसके आगे सुरेंद्र कुछ भी नहीं कह सके. निर्मला ने बताया कि एक दुर्घटना में सिर पर चोट लगी थी तभी से वीरेंद्र की सोचने-समझने की शक्ति प्रभावित हो गयी. जन्मजात ऐसा नहीं है वह. महीने में पंद्रह दिन उसे उपचार के लिए पागलखाने जाना होता है. अभी वहीं से आया है. नियमित ऑफिस भी नहीं जा पाता. मैनेजर अच्छा है, उपस्थिति लगा देता है. जब थोड़ा सामान्य होता है, तब ऑफिस भी चला जाता है. डॉक्टर का कहना है कि धीरे-धीरे ठीक हो जायेगा, परंतु पहले की तरह कभी नहीं हो पायेगा. सारी बातें बताकर जोर-जोर से रोने लगी थी निर्मला.
किंतु निर्मला की बातों को जानने-समझने में शकुंतला को कोई रुचि नहीं थी. जिसका पूरा संसार ही अंधेरा हो गया हो, उसे दूसरे के जीवन में फैले अंधेरे के कारणों को जानने में क्यों रुचि होगी भला. उसने अपने सास-ससुर और देवर के आगे हाथ जोड़ा और नैहर छोड़ आने की प्रार्थना की. पहले तो वे नहीं माने, परंतु जब शकुंतला ने अन्न-जल त्याग दिया तो उन्होंने उसे नैहर भेज दिया.
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भारी मन से शकुंतला ने अपने घर में प्रवेश किया. उसे इस तरह अचानक आया देख उसकी भाभियां घबरा गयीं. क्या हुआ दीदी? किंतु उनसे बिना कुछ बोले ही शकुंतला चुपचाप अपने कमरे में आकर लेट गयी. बिना खाये ही सो गयी. सुबह जब उठी तो आंखें फूली हुई थीं. पर किसी ने उससे कुछ भी नहीं पूछा. नित्य क्रिया से निवृत्त हो नहाने चली गयी. नहाने के बाद हल्के रंग की साड़ी में बिना सिंदूर-बिंदी के जब वह बाहर आयी तो भाभियाें से रहा न गया. उन्होंने पूछ ही लिया, दीदी अब तो बता दीजिए, क्या हुआ है वहां? पूरी बात जान भाई-भाभी ने उससे सहानुभूति जतायी. कोई बात नहीं दीदी, यह आपका ही घर है, आप यहीं रहिये. यहां के सिवा और कहां जायेंगे, मन ही मन में शकुंतला ने प्रश्न किया.
जीवन सहानुभूति के सहारे नहीं चलता, न ही सहानुभूति की उम्र लंबी होती है. एक सप्ताह के भीतर ही शकुंतला को यह बात समझ में आ गयी थी कि अब उनका अपना कोई नहीं रहा. चैन की बात यह थी कि पिता के इस घर में शकुंतला का भी हिस्सा था. यहां बहनों और बुआओं ने भी उसका साथ दिया. सो, घर का एक कोना भाईयों को अपनी बहन को देना पड़ा. जीवन-यापन के लिए वह बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगी. गहनों की कारीगरी का काम भी आता था उसे, सो भाईयों की दूकान के लिए भी काम कर लिया करती थी. जब घर में सस्ता कारीगर हो तो बाहर से महंगा काम क्यों कराना. इस तरह शकुंतला अपना जीवन जीने लगी. भतीजे-भतीजीयों पर अपनी ममता लुटाने लगीं. अभी सामान्य होने का प्रयास कर ही रही थीं कि देवर आ पहुंचा उन्हें लिवाने. वीरेंद्र फिसलकर गिर पड़े थे और एक बार फिर उनके सिर पर चोट लगी थी. पैर भी टूट गया था. दो महीने बाद पैर का प्लास्टर कटा था.
अबकी बार वीरेंद्र पूरी तरह पागल हो गये थे अौर पागलखाने भेज दिये गये थे. किंतु इस बार शकुंतला बिना आस के वापस नैहर नहीं आयी थी. कोर्ट में मुकदमा करके आयी थी कि पति की जगह उन्हें नौकरी दी जाये.
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कोर्ट में मुकदमा किये सात साल बीत गये हैं, परंतु अब तक इस बारे में कोई निर्णय नहीं हुआ है. एक और शकुंतला सुबह की आस में टकटकी लगाये खड़ी है. जाने कब अंधेरा छंटेगा, कब भोर होगी. पति के साथ की आस तो नहीं, किंतु कम से कम सरकारी नौकरी तो मिल जाये, इसी आस में शकुंतला अब तक बैठी है.

- तरु श्रीवास्तव

बुधवार, 9 जनवरी 2019

कहानी

शकुंतला

आज चौका छूने की रसम है. बुझे मन से शकुंतला उठकर तैयार होने लगी. सिंदूर मांग में भरते-भरते एक पल के लिए उनका हाथ रूक गया. सोचने लगी, क्या सचमुच ब्याहता हैं हम? सिर्फ मांग में सिंदूर भरने से कोई ब्याहता हो जाता है क्या? उसके लिए तो पति का साथ चाहिए. क्या मेरे भाग्य में है ऐसा? सिंदूर हाथ में लिए सोचती रही. कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं उनकी दूसरी पत्नी हूं? कहीं उनका किसी अन्य स्त्री के साथ प्रेम संबंध तो नहीं? कुछ समझ ही नहीं आ रहा था. किससे कहे, क्या कहे? आंखों से आंसू टपक पड़े थे. अरे बहू तुम रो रही हो? नैहर की याद आ रही है? क्या करोगी, लड़कियों का भाग्य ऐसा ही होता है. सास निर्मला के मुंह से सहानुभूति के बोल सुन शकुंतला की सब्र का बांध टूट गया था. फफक पड़ी थी वो.
----------------------------------बिदाई के बाद नैहर से ससुराल आये पंद्रह दिन हो गये थे, लेकिन पति वीरेंद्र ने एक बार भी फोन नहीं किया था अब तक. अब चिंता होने लगी थी शकुंतला को. हिम्मत करके उसने निर्मला से पूछ ही लिया, अम्मांजी सच-सच बताइएगा. कहीं इनका किसी से प्रेम संबंध तो नहीं? इनके जीवन में कोई और स्त्री तो नहीं? कहीं मैं इनकी दूसरी पत्नी तो नहीं? क्यों इन्होंने उस रात एक बार भी बात नहीं की हमसे? ना ही ये हमें लेने मेरे घर आये, ना स्टेशन. क्या बात है, कुछ बताइये तो सही. यदि ये इस शादी से गुस्से में हैं तो हमें उनके पास भेज दीजिए, हम अपने तरीके से इन्हें मनाने की कोशिश करेंगे. एक के बाद एक प्रश्न करती चली गयी शकुंतला अपनी सास से. लेकिन निर्मला एक भी प्रश्न का उत्तर दिये बिना उसे समझाने लगी. चिंता की कोई बात नहीं है बहू. थोड़ा शर्मिला है. आज शाम जब घर आ जायेगा तो पूछ लेना? सुबह ही फोन आया था. आज घर आ रहा है.
क्या आज लौट रहे हैं ये? एक अनचाही खुशी तैर गयी थी शकुंतला के चेहरे पर.सचमुच शाम को वीरेंद्र घर आ गये थे. नजर उठाकर शकुंतला को देखा भी था. रात में सोने के समय शकुंतला ने जब वीरेंद्र से बात करनी चाही तो वे बिना कुछ बोले ही सो गये. किंतु शकुंतला को रातभर नींद नहीं आयी. आती भी कैसे भला. रातभर में उसने निश्चय कर लिया था कि कल उसे क्या करना है. सुबह उठते ही अपना सामना बांधना शुरू कर दिया. सात बजे तक जब वे कमरे से बाहर नहीं निकली तो निर्मला बुलाने चली आयी. किंतु दरवाजे पर पहुंच उसके कदम ठिठक गये.
अरे बहू, वीरेंद्र के साथ कहीं बाहर जा रही हो क्या. अम्मांजी क्या आप हमें अपनी बहू मानती हैं? अरे ये कैसा प्रश्न है? तुम वीरेंद्र की पत्नी हो, इस नाते मेरी बहू ही हुई. तो फिर अब तक हमें इनका सच क्यों नहीं बताया गया? निर्मला को जब कोई बहाना नहीं सूझा ताे वह बाहर जाकर शकुंतला के ससुर सुरेंद्र व देवर राजेंद्र को बुला ले आयी. सुरेंद्र ने जो बात बतायी, उसे सुन शकुंतला के पैरों तले की जमीन ही खिसक गयी. बहू, असल में वीरेंद्र में बुद्धि की थोड़ी कमी है. बुद्धि कम का मतलब, हम समझे नहीं. शकुंतला ने पूछा. मतलब वह....... इसके आगे सुरेंद्र कुछ भी नहीं कह सके. निर्मला ने बताया कि एक दुर्घटना में सिर पर चोट लगी थी तभी से वीरेंद्र की सोचने-समझने की शक्ति प्रभावित हो गयी. जन्मजात ऐसा नहीं है वह. महीने में पंद्रह दिन उसे उपचार के लिए पागलखाने जाना होता है. अभी वहीं से आया है. नियमित ऑफिस भी नहीं जा पाता. मैनेजर अच्छा है, उपस्थिति लगा देता है. जब थोड़ा सामान्य होता है, तब ऑफिस भी चला जाता है. डॉक्टर का कहना है कि धीरे-धीरे ठीक हो जायेगा, परंतु पहले की तरह कभी नहीं हो पायेगा. सारी बातें बताकर जोर-जोर से रोने लगी थी निर्मला.
किंतु निर्मला की बातों को जानने-समझने में शकुंतला को कोई रुचि नहीं थी. जिसका पूरा संसार ही अंधेरा हो गया हो, उसे दूसरे के जीवन में फैले अंधेरे के कारणों को जानने में क्यों रुचि होगी भला. उसने अपने सास-ससुर और देवर के आगे हाथ जोड़ा और नैहर छोड़ आने की प्रार्थना की. पहले तो वे नहीं माने, परंतु जब शकुंतला ने अन्न-जल त्याग दिया तो उन्होंने उसे नैहर भेज दिया.--------------------------------------
भारी मन से शकुंतला ने अपने घर में प्रवेश किया. उसे इस तरह अचानक आया देख उसकी भाभियां घबरा गयीं. क्या हुआ दीदी? किंतु उनसे बिना कुछ बोले ही शकुंतला चुपचाप अपने कमरे में आकर लेट गयी. बिना खाये ही सो गयी. सुबह जब उठी तो आंखें फूली हुई थीं. पर किसी ने उसेसे कुछ भी नहीं पूछा. नित्य क्रिया से निवृत्त हो नहाने चली गयी. नहाने के बाद हल्के रंग की साड़ी में बिना सिंदूर-बिंदी के जब वह बाहर आयी तो भाभियाें से रहा न गया. उन्होंने पूछ ही लिया, दीदी अब तो बता दीजिए, क्या हुआ है वहां? पूरी बात जान भाई-भाभी ने उससे सहानुभूति जतायी. कोई बात नहीं दीदी, यह आपका ही घर है, आप यहीं रहिये. यहां के सिवा और कहां जायेंगे, मन ही मन में शकुंतला ने प्रश्न किया. जीवन सहानुभूति के सहारे नहीं चलता, न ही सहानुभूति की उम्र लंबी होती है. एक सप्ताह के भीतर ही शकुंतला को यह बात समझ में आ गयी थी कि अब उनका अपना कोई नहीं रहा. चैन की बात यह थी कि पिता के इस घर में शकुंतला का भी हिस्सा था. यहां बहनों और बुआओं ने भी उसका साथ दिया. सो, घर का एक कोना भाईयों को अपनी बहन को देना पड़ा. जीवन-यापन के लिए वह बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगी. गहनों की कारीगरी का काम भी आता था उसे, सो भाईयों की दूकान के लिए भी काम कर लिया करती थी. जब घर में सस्ता कारीगर हो तो बाहर से महंगा काम क्यों कराना. इस तरह शकुंतला अपना जीवन जीने लगी. भतीजे-भतीजीयों पर अपनी ममता लुटाने लगीं. अभी सामान्य होने का प्रयास कर ही रही थीं कि देवर आ पहुंचा उन्हें लिवाने. वीरेंद्र फिसलकर गिर पड़े थे और एक बार फिर उनके सिर पर चोट लगी थी. पैर भी टूट गया था. दो महीने बाद पैर का प्लास्टर कटा था.
अबकी बार वीरेंद्र पूरी तरह पागल हो गये थे अौर पागलखाने भेज दिये गये थे. किंतु इस बार शकुंतला बिना आस के वापस नैहर नहीं आयी थी. कोर्ट में मुकदमा करके आयी थी कि पति की जगह उन्हें नौकरी दी जाये.-----------------------------
कोर्ट में मुकदमा किये सात साल बीत गये हैं, परंतु अब तक इस बारे में कोई निर्णय नहीं हुआ है. एक और शकुंतला सुबह की आस में टकटकी लगाये खड़ी है. जाने कब अंधेरा छंटेगा, कब भोर होगी. पति के साथ की आस तो नहीं, किंतु कम से कम सरकारी नौकरी तो मिल जाये, इसी आस में शकुंतला अब तक बैठी है. 

रविवार, 21 अक्तूबर 2018

लघुकथा


लघुकथा
अपना घर

क्यूं चले आते हो बार-बार यहां, जबकि तुम्हें इस घर में हजारों कमियां दिखायी देती हैं। अभी सुबह ही तो कितना कुछ बोलकर गये थे तुम। यह भी कहा था कि अब इस घर में कभी पांव तक नहीं धरोगे। पैसों की तो कोई कमी नहीं तुम्हें, कहीं भी रह सकते हो, फिर क्यों नहीं रह लेते किसी दूसरी जगह।
हां रह सकता हूं, किंतु, खुश नहीं रह सकता। लाख कमी के बावजूद भी यह संसार की सबसे सुंदर जगह है। क्योंकि यह अपना घर जो है।
- तरु श्रीवास्तव

गुरुवार, 27 सितंबर 2018

कविता

अभिलाषा
कर सकूं प्रकाशित
हर मन का कोना
भर सकूं आनंद
सबके हृदय में
गहर धंसे तिमिर को
तिरोहित कर
फैला सकूं उजियारा
जग के कोने-कोने में
बना सकूं ऊर्जावान सबको
धरती के कोने-कोन में उगा सकूं
खुशहाली की फसल
बदल सकूं
निराशा को आशा में
खिला सकूं मुस्कान
सबके अधरों पर
कुछ ऐसा करूं कि सब रहें प्रतीक्षारत
मैं अब आऊं, अब आऊं
मैं बन सकूं उस जैसा
कर सकूं उस जैसा
जैसा करती है
भोर की किरण.
- तरु श्रीवास्तव

शनिवार, 8 सितंबर 2018

कविता

कविता

अधिकार


अब भी बचे हैं मेरे पास
थोड़े से जीवन मूल्य
किसी को गिराकर ऊपर उठना
अभी नहीं सीखा है मैंने
दूसरों के हिस्से का खाना
येन-केन-प्रकारेण,
अपनी थाली में लाना
अभी नहीं सीखा है मैंने
दूसरों के हिस्से की प्रशंसा पाने के लिए
उनकी उपलब्धियां चुराना
अभी नहीं सीखा है मैंने
यह भी तो नहीं सीखा है
कि कैसे भरे जाते हैं कान किसी के
दूसरों को नीचा दिखाने के लिए
हां, पर स्वार्थी हो गयी हूं मैं
पहले से कहीं अधिक,
संवेदनहीन भी
अब नहीं धड़कता मेरा हृदय
सर्दियों में घूम रहे नंगे-अधनंगे बच्चे के लिए
अब नहीं होती पीड़ा
सदियों से उत्पीड़ित मानवता को देखकर
अब तो भीख मांग रहे मां की छाती से लटके
दूधमुंहे बच्चे को देखकर भी
हृदय नहीं धड़कता मेरा
कई बार सोचा
भूल कर रही हूं मैं स्वार्थी होकर
परंतु, क्या उन निर्धनों,
उत्पीड़ितों के ऊपर उठ चुके अपने लोगों ने
कभी सोचा उनके बारे में
क्या कोई ठोस कदम उठाये
उन्हें सशक्त बनाने के
क्या अपने हिस्से से कुछ बांटना
सीखा उन्होंने
सीखा तो केवल बांटकर राज करना
सुख-सुविधाओं में लिप्त रहना
कानों में रुई डाल
संवेदनहीन बने रहना
हमें भी तो अधिकार है
अपने लिए जीने का
स्वयं में मगन रहने का
मैं स्वीकारती हूं
जातिवादी हो गयी हूं मैं
हां, अब सवर्णवादी हो गयी हूं मैं
पर, केवल अपने बच्चे के अधिकार के लिए.

- तरु श्रीवास्तव