गुरुवार, 12 दिसंबर 2019

कहानी


कहानी

सरकते हाथ

कार्यालय से घर जाने के लिए निकली ही थी कि सामने से आ रहे दो लोगों पर मेरी नजर पड़ी. वे पुरुष व स्त्री थे. पुरुष की उम्र 45-50 के बीच थी. दाढ़ी, बाल खिचड़ी हो चले थे. सफेद-काले का मिश्रण. स्त्री 22-24 वर्ष की युवती थी. कांधे पर फैले बाल, बड़ी-बड़ी आंखें, होठों पर लिपिस्टिक लगी थी. स्टाइलिश फ्रॉक में वह बहुत आकर्षक लग रही थी. अधेड़ होने के बावजूद पुरुष भी आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी था. पुरुष का हाथ स्त्री के कंधे पर था, दूर से ऐसा ही दिख रहा था. युवती अधेड़ उम्र के पुरुष से कुछ बातें कर रही थी. क्या? यह सुनाई नहीं दिया, संभवत: दूर होने की वजह से. निकट आने पर मैंने देखा, पुरुष मुस्कुरा रहा था. सहसा मेरी दृष्टि युवती के कांधे पर रखे पुरुष के हाथ पर गई. वह अब वहां नहीं था. सरक कर युवती के कांधे से नीचे बगल में आ गया था. मानो कुछ टटोल रहा हो. कुछ विचित्र सा लगा मुझे यह देखकर. मैंने अपनी दृष्टि युवती के चेहरे पर गड़ा दी. वह अब पुरुष से बातें करने में मगन थी. अब मैंने पुरुष के चेहरे को देखा. उस पर पहले सी मुस्कान अब भी तैर रही थी. एक बार पुन: मेरी दृष्टि पुरुष के हाथ पर गयी. अब वह वहां नहीं था. बगल से थोड़ा आगे सरक आया था. हाथों को सरकते मैंने साफ-साफ देखा. अनजाने में नहीं अपितु, जानते-बूझते किसी तलाश में. ऐसा मैंने महसूस किया. यह क्या? वह तो युवती के स्तन के ठीक नीचे पहुंच चुका था. उसकी अंगुलियां फैलकर स्तनों को छूने लगी थीं और उसे धीरे-धीरे दबाने भी लगी थीं. युवती के चेहरे पर असमंजस, लज्जा या घृणा के कोई भाव नहीं थे. वह पूर्ववत निर्विकार भाव के साथ पुरुष से बातें करने में मगन थी. पुरुष के चेहरे पर वही मुस्कान. विद्रूपता भरी या सहज, कह नहीं सकती, क्योंकि मैंने अपनी दृष्टि वहां से हटा ली थी. आगे भी निकल आयी थी उन दोनों को पीछे छोड़. हम तीनों की पीठ ही एक-दूसरे को देख रही थी अब.

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आमतौर पर मैं तेज चलती हूं, पर जब किसी सोच में होती हूं तो मेरी चाल अपने आप धीमी हो जाती है. यही इस बार भी हुआ. 10 मिनट का रास्ता 15 मिनट में तय किया. मेट्रो स्टेशन पहुंचकर भी वही दोनों मेरे मानस पर छाये रहे. युवती की सहजता मुझे कचोट रही थी, तो पुरुष का हाथ विषधर प्रतीत हो रहा था. मेट्रो आयी और मैं चढ़ गयी. पूरे रास्ते मैं यही सोचती रही कि क्या बीच रास्ते कामुकता का यह प्रदर्शन उचित था? क्या जितना बुरा मुझे लगा, दूसरों को भी लगा होगा? संभवत: लगा हो, पर मेरी तरह उन्होंने भी दूसरे के मामले में बोलना उचित न समझा हाे? क्या वह स्त्री और पुरुष, पति-पत्नी थे? नहीं संभवत: नहीं? उनके चेहरे के भाव से ऐसा प्रतीत नहीं हुआ मुझे. पति-पत्नी अपने नितांत निजी पलों को यूं सार्वजनिक क्यों करेंगे भला? तो क्या दोनों प्रेमी-प्रेमिका थे? ऐसा भी मैंने महसूस नहीं किया? प्रेम में होना तो आपको ऊंचा उठा देता है, वहां ऐसे प्रदर्शन की आवश्यकता कहां पड़ती है, जहां आते-जाते लोगों की दृष्टि आपके निजी पलों में सेंध लगाती रहे. फिर कैसा संबंध है यह. कहीं पुरुष उस युवती का बॉस तो नहीं. हो सकता है. फिर तो यह भोग की चाह और त्वरित गति से आगे बढ़ने की महत्वकांक्षा से पनपा संबंध है. क्या नाम होना चाहिए ऐसे संबंधों का? नहीं, नहीं, ऐसा भी नहीं है. ऐसा होता तो है, पर उसका सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं होता. वह तो बंद कक्ष के भीतर पनपता है, खिलता है और समय के साथ मुरझा जाता है या सार्वजनिक हो जाता है. कई बार विवाह-बंधन में भी परिणत हो जाता है. मेरा मस्तिष्क अनेक प्रकार के सोच-विचार में उलझ गया था. इसी बीच मेरा स्टेशन आ गया और मैं मेट्रो से बाहर आ गयी. घर के रास्ते में भी मैं इसी सोच में डूबी रही. क्या संबंध होगा दोनों के बीच?
इस बीच एक अच्छी बात यह हुई कि घर पहुंचते-पहुचते मैंने उन दोनों के बीच के संबंध की कड़ी तलाशनी बंद कर दी. अपनी सोच दूसरी दिशा में मोड़ दी. मैंने दोनों को आधुनिक की संज्ञा दी. अपने मन को समझाया कि ऐसा होना बुरी बात नहीं. बंद कमरे की जगह खुले में प्रेम करने में क्या बुराई है? बंधनों में भी कहीं प्रेम पलता है? उसे तो खुला आकाश चाहिए. लोगों के बीच प्रदर्शन की हिम्मत चाहिए.

थोड़ी देर शांत रहने के बाद मेरे मन में फिर कुलबुलाहट हुई. इस बार लाख समझाने के बाद भी वह नहीं माना. पुरातन सोच का जाे ठहरा. प्रेम को नितांत निजी मानता है. एक बार फिर मन उलझ गया था. अब मैं केवल युवती के पक्ष से सोच रही थी. पुरुष मेरे मस्तिष्क से निकल चुका था. इस बार स्त्री के चेहरे के मनोभाव मैंने नहीं पढ़े. सीधा उसके हृदय में झांक कर देखा. वहां भी कोई असमंजस नहीं दिखा. दु:ख, पश्चाताप के कोई निशान भी नहीं दिखे वहां. हां, विद्रोह अवश्य दिखा मुझे. मुझ जैसे पुरातन सोचवालों से. आधुनिक कहलाने की चाह दिखी. इसी चाह में मुझ जैसी पुरातन सोच को डूबा देने की तीव्र इच्छा दिखी. पर प्रेम नहीं दिखा वहां.

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अब सबकुछ साफ था. इच्छापूर्ति के लिए कोई भी स्थान उचित है. इस विद्रोह का प्रदर्शन कहीं भी हो सकता है. तथाकथित आधुनिक मानस को बंधनों की, चारदीवारी की क्या आवश्यकता. यहां प्रेम की भी आवश्यकता नहीं है.
मेरी उलझन सुलझ चुकी थी. स्त्री-पुरुष के बीच सहमति थी. अभी प्रसन्न्ता में झूम ही रही थी कि इस पहले को मैंने सुलझा लिया. मन फिर से उलझ गया. क्या यह आधुनिकता है? क्या स्त्री सचमुच आधुनिक है? खुद को भोग की वस्तु बना देना, आधुनिकता कैसे हो गया? पुरुष तो सदैव स्त्री को भोगना चाहता है. तो क्या स्त्री आज भी दासी है? आधुनिक दासी, भोग की वस्तु? क्या शरीर से परे उसका कोई अस्तित्व नहीं? क्या स्वतंत्रता का अर्थ यही है? क्या शरीर ही सबकुछ है? विचार, प्रेम, सोच कुछ भी नहीं.

अभी भी मैं अपने प्रश्न का उत्तर तलाश रही हूं. आपको मिला क्या?
- तरु श्रीवास्तव