गुरुवार, 27 सितंबर 2018

कविता

अभिलाषा
कर सकूं प्रकाशित
हर मन का कोना
भर सकूं आनंद
सबके हृदय में
गहर धंसे तिमिर को
तिरोहित कर
फैला सकूं उजियारा
जग के कोने-कोने में
बना सकूं ऊर्जावान सबको
धरती के कोने-कोन में उगा सकूं
खुशहाली की फसल
बदल सकूं
निराशा को आशा में
खिला सकूं मुस्कान
सबके अधरों पर
कुछ ऐसा करूं कि सब रहें प्रतीक्षारत
मैं अब आऊं, अब आऊं
मैं बन सकूं उस जैसा
कर सकूं उस जैसा
जैसा करती है
भोर की किरण.
- तरु श्रीवास्तव

शनिवार, 8 सितंबर 2018

कविता

कविता

अधिकार


अब भी बचे हैं मेरे पास
थोड़े से जीवन मूल्य
किसी को गिराकर ऊपर उठना
अभी नहीं सीखा है मैंने
दूसरों के हिस्से का खाना
येन-केन-प्रकारेण,
अपनी थाली में लाना
अभी नहीं सीखा है मैंने
दूसरों के हिस्से की प्रशंसा पाने के लिए
उनकी उपलब्धियां चुराना
अभी नहीं सीखा है मैंने
यह भी तो नहीं सीखा है
कि कैसे भरे जाते हैं कान किसी के
दूसरों को नीचा दिखाने के लिए
हां, पर स्वार्थी हो गयी हूं मैं
पहले से कहीं अधिक,
संवेदनहीन भी
अब नहीं धड़कता मेरा हृदय
सर्दियों में घूम रहे नंगे-अधनंगे बच्चे के लिए
अब नहीं होती पीड़ा
सदियों से उत्पीड़ित मानवता को देखकर
अब तो भीख मांग रहे मां की छाती से लटके
दूधमुंहे बच्चे को देखकर भी
हृदय नहीं धड़कता मेरा
कई बार सोचा
भूल कर रही हूं मैं स्वार्थी होकर
परंतु, क्या उन निर्धनों,
उत्पीड़ितों के ऊपर उठ चुके अपने लोगों ने
कभी सोचा उनके बारे में
क्या कोई ठोस कदम उठाये
उन्हें सशक्त बनाने के
क्या अपने हिस्से से कुछ बांटना
सीखा उन्होंने
सीखा तो केवल बांटकर राज करना
सुख-सुविधाओं में लिप्त रहना
कानों में रुई डाल
संवेदनहीन बने रहना
हमें भी तो अधिकार है
अपने लिए जीने का
स्वयं में मगन रहने का
मैं स्वीकारती हूं
जातिवादी हो गयी हूं मैं
हां, अब सवर्णवादी हो गयी हूं मैं
पर, केवल अपने बच्चे के अधिकार के लिए.

- तरु श्रीवास्तव

मंगलवार, 4 सितंबर 2018

कविता

कविता

संबंधहीनता

देह के ऊपर एक और देह
कभी हलचल,
कभी शांत पड़ी रहती है पूरी रात दोनों.
वर्षों से चलता आ रहा है यह सिलसिला
प्रेम के नाम पर.
कितना जानते हैं दोनों
एक-दूसरे को?
सिर्फ देह को या,
मन को भी?
क्या जानते भी हैं?
कहना कठिन है.
संबंधहीनता की परकाष्ठा
क्या नहीं है यह?

- तरु श्रीवास्तव