मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

मुक्तक 

होश में भी किस कदर बेहोश हैं हम इन दिनों
हर शख्स में तेरा ही मुझे अक्स नजर आता है

इस कदर तू छा गया है मेरे ही वजूद पे
आईने में खुद की जगह तू ही नजर आता है

मुंह खोलते हैं जब भी कुछ बोलने को हम
मेरी जबां से अक्सर तू ही बोल जाता है

ये प्यार है, कशिश है तेरी असर का जादू
जो भी हो मुझे कुछ ना कुछ तो दे ही जाता है

तुझे भूलना भी चाहें तो भूल नहीं पाते
मेरी बंदगी में तू भी जगह पा ही जाता है

तू कहता है कि मुझसे तेरा नाता नहीं है
फिर क्यों मेरे हिस्से के आॅंसू पी तू जाता है

तेरी ऑंखों में बहुत कुछ अनकहा सा है
तू बोले या ना बोले पता चल ही जाता है

होश में भी किस कदर बेहोश हैं हम इन दिनों
हर शख्स में तेरा ही मुझे अक्स नजर आता है.

- तरु श्रीवास्तव

मंगलवार, 17 अप्रैल 2018

खुशी की तलाश
न रुपये में, न पैसे में,
न सुविधाओं भरे जीवन में,
बच्चों की हंसी, अपनों के संग
हम खुशियां तलाशते हैंं
दुनिया हमें न जाने क्यों,
पागल समझती है.
- तरु श्रीवास्तव

सोमवार, 9 अप्रैल 2018

चेष्टा
तुमने उतार लिये जाले कमरों के,
मेज-कुर्सियों की पोंछ दी धूल,
चमका लिया रसोई, बर्तन-बासन,
पर, क्या एक बार भी झांककर देखा
अपने मन के भीतर,
चेष्टा की, वहां जमी धूल हटाने की.
- तरु श्रीवास्तव

सोमवार, 2 अप्रैल 2018

निराकार उपस्थिति

एक अनसुलझा प्रश्न
हर पल मथता रहता है मुझे
मेरी देह मेरी है या, तुम्हारी
मेरा मन मेरा है या, तुम्हारा
मेरे रोम-रोम,
हर धड़कन पर तुम्हारा पहरा है
तुमसे इतर,
कभी कुछ सोच ही नहीं पाती
सदेह न होते हुए भी
हर पल तुम हो मेरे पास,
मेरे सामने निराकार उपस्थित.
- तरु श्रीवास्तव