रविवार, 21 अक्तूबर 2018

लघुकथा


लघुकथा
अपना घर

क्यूं चले आते हो बार-बार यहां, जबकि तुम्हें इस घर में हजारों कमियां दिखायी देती हैं। अभी सुबह ही तो कितना कुछ बोलकर गये थे तुम। यह भी कहा था कि अब इस घर में कभी पांव तक नहीं धरोगे। पैसों की तो कोई कमी नहीं तुम्हें, कहीं भी रह सकते हो, फिर क्यों नहीं रह लेते किसी दूसरी जगह।
हां रह सकता हूं, किंतु, खुश नहीं रह सकता। लाख कमी के बावजूद भी यह संसार की सबसे सुंदर जगह है। क्योंकि यह अपना घर जो है।
- तरु श्रीवास्तव

गुरुवार, 27 सितंबर 2018

कविता

अभिलाषा
कर सकूं प्रकाशित
हर मन का कोना
भर सकूं आनंद
सबके हृदय में
गहर धंसे तिमिर को
तिरोहित कर
फैला सकूं उजियारा
जग के कोने-कोने में
बना सकूं ऊर्जावान सबको
धरती के कोने-कोन में उगा सकूं
खुशहाली की फसल
बदल सकूं
निराशा को आशा में
खिला सकूं मुस्कान
सबके अधरों पर
कुछ ऐसा करूं कि सब रहें प्रतीक्षारत
मैं अब आऊं, अब आऊं
मैं बन सकूं उस जैसा
कर सकूं उस जैसा
जैसा करती है
भोर की किरण.
- तरु श्रीवास्तव

शनिवार, 8 सितंबर 2018

कविता

कविता

अधिकार


अब भी बचे हैं मेरे पास
थोड़े से जीवन मूल्य
किसी को गिराकर ऊपर उठना
अभी नहीं सीखा है मैंने
दूसरों के हिस्से का खाना
येन-केन-प्रकारेण,
अपनी थाली में लाना
अभी नहीं सीखा है मैंने
दूसरों के हिस्से की प्रशंसा पाने के लिए
उनकी उपलब्धियां चुराना
अभी नहीं सीखा है मैंने
यह भी तो नहीं सीखा है
कि कैसे भरे जाते हैं कान किसी के
दूसरों को नीचा दिखाने के लिए
हां, पर स्वार्थी हो गयी हूं मैं
पहले से कहीं अधिक,
संवेदनहीन भी
अब नहीं धड़कता मेरा हृदय
सर्दियों में घूम रहे नंगे-अधनंगे बच्चे के लिए
अब नहीं होती पीड़ा
सदियों से उत्पीड़ित मानवता को देखकर
अब तो भीख मांग रहे मां की छाती से लटके
दूधमुंहे बच्चे को देखकर भी
हृदय नहीं धड़कता मेरा
कई बार सोचा
भूल कर रही हूं मैं स्वार्थी होकर
परंतु, क्या उन निर्धनों,
उत्पीड़ितों के ऊपर उठ चुके अपने लोगों ने
कभी सोचा उनके बारे में
क्या कोई ठोस कदम उठाये
उन्हें सशक्त बनाने के
क्या अपने हिस्से से कुछ बांटना
सीखा उन्होंने
सीखा तो केवल बांटकर राज करना
सुख-सुविधाओं में लिप्त रहना
कानों में रुई डाल
संवेदनहीन बने रहना
हमें भी तो अधिकार है
अपने लिए जीने का
स्वयं में मगन रहने का
मैं स्वीकारती हूं
जातिवादी हो गयी हूं मैं
हां, अब सवर्णवादी हो गयी हूं मैं
पर, केवल अपने बच्चे के अधिकार के लिए.

- तरु श्रीवास्तव

मंगलवार, 4 सितंबर 2018

कविता

कविता

संबंधहीनता

देह के ऊपर एक और देह
कभी हलचल,
कभी शांत पड़ी रहती है पूरी रात दोनों.
वर्षों से चलता आ रहा है यह सिलसिला
प्रेम के नाम पर.
कितना जानते हैं दोनों
एक-दूसरे को?
सिर्फ देह को या,
मन को भी?
क्या जानते भी हैं?
कहना कठिन है.
संबंधहीनता की परकाष्ठा
क्या नहीं है यह?

- तरु श्रीवास्तव

बुधवार, 29 अगस्त 2018

गीत

गीत

बन जाऊं शीला, जो कह दो अगर
शर्त है नाम उस पर तुम अपना लिखो.

कुछ  ना बाेलूंगी मैं जो ना चाहोगे तुम
भाषा नयनों की पहले मुखर तो करो.

आंधी में भी जलाये रखूंगी दिया
हौसला बन सदा संग जो मेरे रहो.

पीड़ सह जाऊंगी सारी हंसते हुए
कदम-दर-कदम संग जो मेरे चलो.

मिट जाऊंगी मैं तेरी खातिर प्रिये
धड़कनों में बस अपने समेटे रखो.

मीरा बन जाऊंगी जोग तेरा लिये
कान्हा बन मान मेरा सदा जाे रखो.

बन जाऊं शीला, जो कह दो अगर
शर्त है नाम उस पर तुम अपना लिखो.

- तरु श्रीवास्तव


मंगलवार, 14 अगस्त 2018

देशभक्ति गीत

देशभक्ति गीत

ये देश हमारा है, हमको ये प्यारा है
दुनिया से निराला है, हम सबका दुलारा है.

जहां कोयल गाती हैं, पंचम की बोली में
ऋतुएं जहां आती हैं, रागों की डोली में.

उगते सूरज को हम, जहां अर्ध्य चढ़ाते हैं
डूबते सूरज को भी, जल हम ही चढ़ाते हैं.

कई धर्म जहां जन्मे, कई धर्मगुरु जन्मे
कई भाषा जहां जन्मी, कई भाषी जहां बसते.

दुनिया में कहां किसी को, इतना मान मिलता है
घर आये अतिथि को, सम्मान मिलता है.

पावों को धोना भी जहां भाग्य समझते हैं
घर आये अतिथि को, भगवान समझते हैं.

हर वस्तु को पूजा है, सुख जिसने हमको दिया
नदियां-सागर को भी, मां-पिता है हमने कहा.

संसार को सर्वप्रथम, शिक्षा इसने दी है
जो आया शरण इसके, भिक्षा इसने दी है.

युग-युग के बंधन भी, जहां माने जाते हैं
पत्थर में ध्यान लगा, भगवान को पाते हैं.

बस एक ही इच्छा है, हर बार जनम लें हम
हर बार मिले धरती, भारत ही अंकित हो.

- तरु श्रीवास्तव


सोमवार, 6 अगस्त 2018

कविता

 अजूबा

क्या-क्या अजूबा हमने इस कलयुग में देखा है
रावण के हाथों राम को मरते देखा है.
विद्या की चंचला से कभी दोस्ती न थी
दोनों को आज हमने गले मिलते देखा है.
लहराते होंगे परचम कभी सत्य के गगन में
झूठ को ही आज हमने फलते देखा है.
जो कहते हैं हम शोषितों को न्याय देेते हैं
उनके हाथों हमने कत्ल होते देखा है.
क्या-क्या अजूबा हमने इस कलयुग में देखा है
रावण के हाथों राम को मरते देखा है.

- तरु श्रीवास्तव

शनिवार, 28 जुलाई 2018

कहानी

मुक्ति

'खुशियां आई घर-आंगन में
जब तूने मुझसे जनम लिया
निष्ठुर दुनिया के कारण ही
हाय, मैंने तुझको मुक्त किया'

बैरक में आई नई बंदी कमला, रूंधे गले से इस गीत को बार-बार दुहराती और फिर उसकी चित्कार से पूरा कारागार गूंज उठता. चित्कार के बीच ही कमला अपने दूधमुंहे पुत्र के लिए भी विलाप करती जाती.
कमला को कारागार में आए तीन से चार दिन ही हुए थे, लेकिन उसके रुदन ने बैरक की अन्य कैदियों के हृदय में उसके लिए सहानुभूति पैदा कर दी थी. किंतु किसी की भी हिम्मत नहीं हो पा रही थी कि वह कमला के दु:ख का कारण पूछ सके. इतना तो सभी बंदी समझ चुकी थीं कि कमला ने अपने बच्चे को खोया है और उसका दूधमुंहा बच्चा घर पर अकेला है. मां की ममता से भरे हृदय का इस दु:ख से द्रवित होना स्वाभाविक ही था.

अंतत: कुमुदनी हिम्मत करके कमला के पास आई और उसके कंधे पर हाथ रख उसे सांत्वना देने का प्रयास करने लगी. सांत्वना पा कमला उससे लिपटकर जोर-जोर से रो पड़ी. पूछने पर बताया कि उसने अपनी बेटी की हत्या की है. इतना सुनते ही बैरक की अन्य बंदियों के चेहरे पर आश्चर्यमिश्रित भाव उभर आये. क्या, अपने ही हाथों अपने जाया की हत्या? कितनी निष्ठुर है तू, सहसा एक बंदी बोल पड़ी. पर न जाने क्यों, कुमुदनी को कमला की बातें अविश्वसनीय सी लगीं. उसने हठात उससे पूछ लिया -
'किसे बचाने के लिए स्वयं को हत्यारिन सिद्ध कर रही है?'
कमला ने कुमुदनी के प्रश्न का उत्तर दिए बिना अपनी गर्दन नीचे झुका ली.
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आज अदालत में कमला की पेशी थी. कठघरे में खड़ी कमला से वकील ने पूछा-
'तुमने अपनी बेटी की हत्या क्यों की?'
कमला ने लगभग चीखते हुए कहा- 'हत्या नही की है, मुक्त किया है उसे.'
वकील ने फिर पूछा- 'अपाहिज थी इसलिए हत्या की ना तुमने उसकी?'
कमला - 'अपाहिज थी इसलिए मुक्त किया उसे.'
वकील लगभग चिल्लाते हुए बोला- 'ये क्या मुक्त-मुक्त लगा रखा है, सीधे स्वीकार क्यों नहीं कर लेती की अपाहिज थी इसलिए अपनी बेटी की हत्या की तुमने?'
वकील की बातें सुन कमला चीख पड़ी और बोली, अपने प्राणों से अधिक प्रिय थी वह मुझे. अपाहिज थी तो क्या हुआ. मेरी पहली संतान थी. मां बनने का गौरव दिया था उसने मुझे. कब तक बचाती रहती उसे पुरुष नामक भेड़िए से. फिर न्यायाधीश की ओर देखकर कहने लगी -
'साब हम गरीब लोग हैं. मैं कोठी में काम करती हूं और मेरे पति भी काम के सिलसिले में बाहर रहते हैं. मेरे घर आने तक मेरी बच्ची अकेले रहती है. उस दिन जब मैंने सुना कि मेरी ही बस्ती की एक चार बरस की बच्ची को अगवा कर पांच लोगों ने उसके साथ दरिंदगी की, तो मेरा मन कांप उठा. मेरी बच्ची तो अपाहिज थी, वह बोल-सुन भी सकती थी. ऐसे में मेरी बच्ची के साथ भी तो........
फफक पड़ी थी कमला.
'बस, इसीलिए उस दिन मैंने अपनी ममता को कुचल  अपनी बच्ची को कुचलने से बचा लिया. साब, अब बच्चियों में भगवान नहीं दिखते लोगों को, केवल उनके अंग दिखते हैं. अब आप जाे चाहे मुझे दंड दें, मुझे स्वीकार होगा. एक निवेदन है, मेरे दूधमुुंहे बच्चे को मेरे पास रहने की आज्ञा दे दीजिए.'
कमला की बातों ने अदालत में सबको सन्न करके रख दिया था. न्यायाधीश महोदय ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा - 'कमला यह सच है कि हमारे समाज में बच्चियों के साथ क्रूरता बढ़ती जा रही है, लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि हम उनसे जीने का अधिकार छीन लें. तुमने हत्या की है और इसके लिए तुम्हें आजीवन कारावास का दंड दिया जाता है. एक बात और, चूंकि तुम्हारा बच्चा छोटा है इसलिए उसे तुम्हारे पास रहने की आज्ञा दी जाती है.'
अदालत के निर्णय के बाद कमला के चेहरे पर दु:ख के बावजूद हल्की मुस्कान तैर गई. इस मुस्कान का अर्थ बेटे का साथ मिलने की खुशी थी या बेटी को मुक्त करने की सजा पाने की, कौन जाने.
- तरु श्रीवास्तव


बुधवार, 11 जुलाई 2018

कविता

जाननेवाला
तुम्हें मेरे गालों,
मेरे बालों की चमक दिखाई देती है
चेहरे पर मासूमियत, उम्र पर विजय पा चुकी त्वचा,
कमनीय देहयष्टि दिखाई देती है
पर, आंखों की उदासी, अनकहे शब्द
जिसे मैं चाहती हूं तुम पढ़ लो
बिना कहे,
एक बार भी दिखाई नहीं देती,
कैसे मनाऊं मन को
कोई है, मुझे जाननेवाला भी.



- तरु श्रीवास्तव

सोमवार, 18 जून 2018

कविता

पिता
पिता मां नहीं होते
वे पालक होते हैं
जो गलाते हैं अपनी हड्डियां
दधिचि की तरह और
बन जाते हैं बज्र
ताकि मिल सके हमें सुरक्षा
हम पल-बढ़ सकें
खुले आकाश में
फैला सकें अपने पंख
पूरा कर सकें अपने सपने
बिना किसी भय, असुरक्षा के.
- तरु श्रीवास्तव

मंगलवार, 15 मई 2018

कविता

मन की शक्ति
काल के दुश्चक्र में फंसकर
कितने सपने टूट गये
कितने पीछे छूट गये
पर, हार ना मानी मन ने मेरे
रार ठान ली कालचक्र से
दृढ़ निश्चय कर संवारा मुझको,
नये-नये सपनों की पेटी
मुझको थमाया मन ने मेरे
कहा यही अब तेरा सहारा
तरे जीवन का उजियारा,
पर, मैं जैसे निस्पंद पड़ी थी
टूटे सपने, छूटे सपने
संग लिए हताश खड़ी थी,
आशा और निराशा के
बीच भंवर में झूल रही थी,
सूझ रहा था कुछ ना मुझको
जी जाऊं या, मर जाऊं,
तभी किसी शक्ति ने मेरे
अंतस को झिंझोड़ जगाया
राह मिल गयी जैसे मुझको
उत्साही सा जीवन हो गया
निकल पड़ी नये सपने लेकर
नवजीवन की नई डगर पर,
कई बरस जब बीत गये
टूटे-छूटे, नवल  स्वप्न
जब सारे साकार हो गये
देखा तब अंतर में उतरकर
ना पूरब ना पश्चिम में,
ना उत्तर ना दक्षिण में,
ना जंगल ना झाड़ों में,
ना नदिया ना सागर में,
शक्ति मेरे मन में बसी थी,
शक्ति मेरे मन में बसी थी,
शक्ति मेर मन में बसी थी.
- तरु श्रीवास्तव

बुधवार, 9 मई 2018

लघु कथा

परिस्थिति
मेट्रो में मेरी बगल की सीट पर साधारण से कपड़े में बैठी महिला ने जैसे ही मुझसे अपने बच्चे के लिए पानी मांगा, मैंने झट पानी का बॉटल बंद कर अपने बैग में रख लिया. महिला ने फिर कहा, 'जरा सा पानी दे दीजिए ना, मेरा बच्चा प्यास से रो रहा है'. लेकिन मैंने बिना उसकी ओर देखे एक झटके में कह दिया, 'नहीं दे सकती' और अपनी सहेली की ओर देख मुस्कुरा दिया. इसके बाद मैं आंखें मूंदकर बैठ गयी. मेरी निष्ठुरता देख कई महिलाएं मुझे बुरा-भला कहने लगीं. मैं चुप सबकी सुनती रही, पर न अपनी आंखें खोली, न कोई जवाब दिया. बच्चा भी चुप हो गया था, शायद किसी ने उसे पानी पिला दिया था. लेकिन महिलाओं का मुझे कोसना जारी था. कुछ देर तो मेरी सहेली चुपचाप सब सुनती रही, लेकिन जब उससे रहा नहीं गया तो वह जोर से चीख पड़ी, 'चुप रहिए आपलोग. इसके फेफड़े में संक्रमण है और पानी जूठा था इसलिए बच्चे को नहीं दिया. लेकिन आप लोगों को तो किसी की परिस्थिति जाने बिना उसे गलत ठहराने की अादत पड़ी हुई है.' मेट्रो में एकदम चुप्पी छा गयी. मैं यथावत आंखें मूंदे बैठी रही.
- तरु श्रीवास्तव

बुधवार, 2 मई 2018

बदली हवा
कल हवा जाे चली, कुछ बदली लगी
वो अपनी नहीं कुछ परायी लगी
खिड़कियां बंद कर ली, ना घर से गये
इस बदली हवा से हम डर से गये.
कल हवा जाे चली------------------.

डर जिसका था आखिर वही हो गया
हम छुप सा गया, मैं प्रकट हो गया
रिश्तों में वो पहली महक ना रही
एक मैं, एक तू की ही दुनिया बनी.
कल हवा जाे चली-----------------.

घटा जाने कैसी यहां छा गयी
संस्कृति उसमें अपनी समाने लगी
मूल्य अपनी धरा के बिखरने लगे
नग्नता नाच अपना दिखाने लगी.
कल हवा जो चली--------------------.

पूर्वजों की बनायी डगर छोड़कर
कौन सी राह पर जाने हम चल पड़े
प्रेम का अर्थ मन का मिलन ना रहा
रूप-यौवन भ्रमर को रिझाने लगी.
कल हवा जो चली---------------------.

अर्थ को इष्ट सब मानने हैं लगे
अर्थ ही संगी-साथी, कुटुम्ब बन चले
झूठ के पांव हर घर, नगर बढ़ चले
सच की परछाईं भी अब डराने लगी.
कल हवा जो चली-----------------.
- तरु श्रीवास्तव

मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

मुक्तक 

होश में भी किस कदर बेहोश हैं हम इन दिनों
हर शख्स में तेरा ही मुझे अक्स नजर आता है

इस कदर तू छा गया है मेरे ही वजूद पे
आईने में खुद की जगह तू ही नजर आता है

मुंह खोलते हैं जब भी कुछ बोलने को हम
मेरी जबां से अक्सर तू ही बोल जाता है

ये प्यार है, कशिश है तेरी असर का जादू
जो भी हो मुझे कुछ ना कुछ तो दे ही जाता है

तुझे भूलना भी चाहें तो भूल नहीं पाते
मेरी बंदगी में तू भी जगह पा ही जाता है

तू कहता है कि मुझसे तेरा नाता नहीं है
फिर क्यों मेरे हिस्से के आॅंसू पी तू जाता है

तेरी ऑंखों में बहुत कुछ अनकहा सा है
तू बोले या ना बोले पता चल ही जाता है

होश में भी किस कदर बेहोश हैं हम इन दिनों
हर शख्स में तेरा ही मुझे अक्स नजर आता है.

- तरु श्रीवास्तव

मंगलवार, 17 अप्रैल 2018

खुशी की तलाश
न रुपये में, न पैसे में,
न सुविधाओं भरे जीवन में,
बच्चों की हंसी, अपनों के संग
हम खुशियां तलाशते हैंं
दुनिया हमें न जाने क्यों,
पागल समझती है.
- तरु श्रीवास्तव

सोमवार, 9 अप्रैल 2018

चेष्टा
तुमने उतार लिये जाले कमरों के,
मेज-कुर्सियों की पोंछ दी धूल,
चमका लिया रसोई, बर्तन-बासन,
पर, क्या एक बार भी झांककर देखा
अपने मन के भीतर,
चेष्टा की, वहां जमी धूल हटाने की.
- तरु श्रीवास्तव

सोमवार, 2 अप्रैल 2018

निराकार उपस्थिति

एक अनसुलझा प्रश्न
हर पल मथता रहता है मुझे
मेरी देह मेरी है या, तुम्हारी
मेरा मन मेरा है या, तुम्हारा
मेरे रोम-रोम,
हर धड़कन पर तुम्हारा पहरा है
तुमसे इतर,
कभी कुछ सोच ही नहीं पाती
सदेह न होते हुए भी
हर पल तुम हो मेरे पास,
मेरे सामने निराकार उपस्थित.
- तरु श्रीवास्तव

मंगलवार, 27 मार्च 2018

कान
कान भी बदलते हैं रूप
बन जाते हैं पंख
जब फैलानी होती है
कोई अफवाह
- तरु श्रीवास्तव

सोमवार, 12 मार्च 2018

चार दिनों की, ये जिंदगानी
कर ले तू बंदे, मनमानी।
ना मिलेगी दोबारा जवानी
जी ले तू अपनी, जिंदगानी।
चार दिनों की---------------।

कभी इधर भटक, कभी उधर भटक,
कभी ऊपर जा, कभी गहरे जा,
कर ले तू अनुभव अचरज के सब,
फिर ना मिलेगी, जिंदगानी।
चार दिनों की------------------।
कर ले तू बंदे------------------।

जा प्रेम रसिक बन जा, बन भंवरा तू मंडरा,
ले जोग किसी का, जप नाम उसी का,
पर याद रहे तेरे कारण दिल टूटे ना कभी किसी का,
प्रेम अगन में जल के रच दे, तू एक नई कहानी।
चार दिनों की------------------------।
कर ले तू बंदे-------------------------।
- तरु श्रीवास्तव

सोमवार, 5 मार्च 2018

स्त्री का जीवन
कितना मुश्किल है
सीने में दर्द
होठों पर मुस्कान लेकर जीना,
सच,
कितना मुश्किल है
स्त्री होकर जीना.
- तरु श्रीवास्तव

शनिवार, 24 फ़रवरी 2018

होली गीत
फगुनवा में हो फगुनवा में
मन भइले रसिया फगुनवा में.

अाम के डाढ़ी मोजरवा से झूमे
बाग-बगइचा के पछुआ चूमे
जऊआ के बलिया भी झूम-झूम गावे
मन बउरइले फगुनवा में.
मन भइले रसिया फगुनवा में.

धाय बाहर जाये रे धाय भीतर आये
प्रेम पियासा मन चैन न पाये
भइया आ भउजी आ बहिना आ पहुना
सभे बउरइले फगुनवा में.
मन भइले रसिया फगुनवा में.

फगुनवा में हो फगुनवा में
मन भइले रसिया फगुनवा में.
- तरु श्रीवास्तव

सोमवार, 19 फ़रवरी 2018

नमक
नमक की तरह हो
तुम, मेरे लिए
तुम्हारे बिना फीकी,
बेस्वाद है जिंदगी.
- तरु श्रीवास्तव

रविवार, 11 फ़रवरी 2018

बिरहन की पीड़ा
बिरहन की रामा, दोनों नैना
नीर भरे या पीड़ भरे।
उखड़ी-उखड़ी सांसों में हर पल
पी से मिलन की आस पले।
बिरहन की रामा ----       ।

कल ना पड़े तड़पे दिन-रैना
पिंजरबद्ध खग तड़पे जैसे।
बन जोगन भटके वन-उपवन
ढ़ूंढ़े प्रभु, मीरा जैसे।
बिरहन की रामा----       ।

कैसे कहूं मैं प्रीत है तुझसे
बहुत फरक है तुझमें, मुझमें।
कह दूं जग जीने ना देगा
बोले बिना तुम जानोगे कैसे।
बिरहन की रामा----        ।

ना जाने कहां छुप से गये हो
कैसे मिलेंगे हम तुमसे।
मिल जाओ तो कह दें मन की
कह ना सके पहले तुमसे।
बिरहन की रामा----       ।

बिरहन की रामा, दोनों नैना
नीर भरे या पीड़ भरे।
उखड़ी-उखड़ी सांसों में हर पल
पी से मिलन की आस पले।

- तरु श्रीवास्तव

मंगलवार, 6 फ़रवरी 2018

मेरा प्यार

तुम्हारे लिये
मेरा प्यार दूब की तरह है
अमरत्व लिये हुए,
यह जीवित रहेगा
हर परिस्थिति में,
जैसे जीवित रहती है दूब
अकाल-दुर्भिक्ष में भी.
- तरु श्रीवास्तव

मंगलवार, 30 जनवरी 2018

भोजपुरी बसंत गीत
नीमुआ फरेला रसदार
ऋतु बसंत में, हो सजनी.
कोयली करेली पुकार
ऋतु बसंत में, हो सजनी.

फूलल सरसों, तीसी फुलाइल
चुअल महुआ, आम मोजराइल
कोयली के कूक सुन, जिया हुलसाइल
मन मोरा उड़ेला आकास
ऋतु बसंत में, हो सजनी.

चारों तरफ हरियाली छाइल
ओढ़-ओढ़ के धानी चुनरिया
धरती आपन रूप सजाइल
धरती कइली सिंगार
ऋतु बसंत में, हो सजनी.

दूर कहीं केहू बंसी बजावे
ऋतु बसंत के गीत सुनावे
बंसी के धुन सुन, पिया याद अइले
पिया मोरा गइले बिदेश
ऋतु बसंत में, हो सजनी.

केहू हंसेला, केहू रोवेला
सुख-दुख जीवन संग चलेला
सुखवा के दिनवा में सभी साथ रहले
दुखवा में छोड़ी गइले साथ
ऋतु बसंत में, हो सजनी.

ऋतु बसंत में, हो सजनी
ऋतु बसंत में, हो सजनी.
कोयली करेली पुकार
ऋतु बसंत में, हो सजनी.
- तरु श्रीवास्तव

गुरुवार, 25 जनवरी 2018


मां को नमन


मां भारती तुझको नमन
ऐ हिंद है तुझको नमन।
ज्ञान गंगा से सदा
महका करे तेरा चमन।
मां भारती तुझको नमन
ऐ हिंद है तुझको नमन।

हर बार तेरी गोद मिले
हर बार लूं तुझ पर जनम
हर सांस में तेरी आस हो
तेरी चाह की ही प्यास हो
मेरे हृदय में बसे
तेरे वंदन की गुंजन
मां भारती तुझको नमन
ऐ हिंद है तुझको नमन।

तेरी ख्याति जग में हो
हो हर जगह तेरी मिसाल
सबके मुख पर तेरा नाम
सब करें तुझको प्रणाम
मेरी सरगम से बजे
तेरी कीर्ति का भजन
मां भारती तुझको नमन
ऐ हिंद है तुझको नमन।

देखे जो तुझे आंख उठा
काट डालें सर वो हम
हाथ जो तुझ तक बढ़े
काट डालें कर वो हम
एक जनम का क्या कहें
तुझको समर्पित हर जनम
मां भारती तुझको नमन
ऐ हिंद है तुझको नमन।
- तरु श्रीवास्तव