मंगलवार, 15 मई 2018

कविता

मन की शक्ति
काल के दुश्चक्र में फंसकर
कितने सपने टूट गये
कितने पीछे छूट गये
पर, हार ना मानी मन ने मेरे
रार ठान ली कालचक्र से
दृढ़ निश्चय कर संवारा मुझको,
नये-नये सपनों की पेटी
मुझको थमाया मन ने मेरे
कहा यही अब तेरा सहारा
तरे जीवन का उजियारा,
पर, मैं जैसे निस्पंद पड़ी थी
टूटे सपने, छूटे सपने
संग लिए हताश खड़ी थी,
आशा और निराशा के
बीच भंवर में झूल रही थी,
सूझ रहा था कुछ ना मुझको
जी जाऊं या, मर जाऊं,
तभी किसी शक्ति ने मेरे
अंतस को झिंझोड़ जगाया
राह मिल गयी जैसे मुझको
उत्साही सा जीवन हो गया
निकल पड़ी नये सपने लेकर
नवजीवन की नई डगर पर,
कई बरस जब बीत गये
टूटे-छूटे, नवल  स्वप्न
जब सारे साकार हो गये
देखा तब अंतर में उतरकर
ना पूरब ना पश्चिम में,
ना उत्तर ना दक्षिण में,
ना जंगल ना झाड़ों में,
ना नदिया ना सागर में,
शक्ति मेरे मन में बसी थी,
शक्ति मेरे मन में बसी थी,
शक्ति मेर मन में बसी थी.
- तरु श्रीवास्तव

बुधवार, 9 मई 2018

लघु कथा

परिस्थिति
मेट्रो में मेरी बगल की सीट पर साधारण से कपड़े में बैठी महिला ने जैसे ही मुझसे अपने बच्चे के लिए पानी मांगा, मैंने झट पानी का बॉटल बंद कर अपने बैग में रख लिया. महिला ने फिर कहा, 'जरा सा पानी दे दीजिए ना, मेरा बच्चा प्यास से रो रहा है'. लेकिन मैंने बिना उसकी ओर देखे एक झटके में कह दिया, 'नहीं दे सकती' और अपनी सहेली की ओर देख मुस्कुरा दिया. इसके बाद मैं आंखें मूंदकर बैठ गयी. मेरी निष्ठुरता देख कई महिलाएं मुझे बुरा-भला कहने लगीं. मैं चुप सबकी सुनती रही, पर न अपनी आंखें खोली, न कोई जवाब दिया. बच्चा भी चुप हो गया था, शायद किसी ने उसे पानी पिला दिया था. लेकिन महिलाओं का मुझे कोसना जारी था. कुछ देर तो मेरी सहेली चुपचाप सब सुनती रही, लेकिन जब उससे रहा नहीं गया तो वह जोर से चीख पड़ी, 'चुप रहिए आपलोग. इसके फेफड़े में संक्रमण है और पानी जूठा था इसलिए बच्चे को नहीं दिया. लेकिन आप लोगों को तो किसी की परिस्थिति जाने बिना उसे गलत ठहराने की अादत पड़ी हुई है.' मेट्रो में एकदम चुप्पी छा गयी. मैं यथावत आंखें मूंदे बैठी रही.
- तरु श्रीवास्तव

बुधवार, 2 मई 2018

बदली हवा
कल हवा जाे चली, कुछ बदली लगी
वो अपनी नहीं कुछ परायी लगी
खिड़कियां बंद कर ली, ना घर से गये
इस बदली हवा से हम डर से गये.
कल हवा जाे चली------------------.

डर जिसका था आखिर वही हो गया
हम छुप सा गया, मैं प्रकट हो गया
रिश्तों में वो पहली महक ना रही
एक मैं, एक तू की ही दुनिया बनी.
कल हवा जाे चली-----------------.

घटा जाने कैसी यहां छा गयी
संस्कृति उसमें अपनी समाने लगी
मूल्य अपनी धरा के बिखरने लगे
नग्नता नाच अपना दिखाने लगी.
कल हवा जो चली--------------------.

पूर्वजों की बनायी डगर छोड़कर
कौन सी राह पर जाने हम चल पड़े
प्रेम का अर्थ मन का मिलन ना रहा
रूप-यौवन भ्रमर को रिझाने लगी.
कल हवा जो चली---------------------.

अर्थ को इष्ट सब मानने हैं लगे
अर्थ ही संगी-साथी, कुटुम्ब बन चले
झूठ के पांव हर घर, नगर बढ़ चले
सच की परछाईं भी अब डराने लगी.
कल हवा जो चली-----------------.
- तरु श्रीवास्तव