बुधवार, 22 नवंबर 2017

                                                                                    बुआ
‘तुम बैठो मैं अभी आई, चाय का पानी उबल गया होगा’,
कहकर रेणु बुआ अंदर चली गईं। जब बाहर आईं तो उनके हाथ में दो कप थे। मुझे चाय का कप थमाते हुए बोलीं -
‘बता तेरा काम कैसा चल रहा है? तुझसे मिलने का बहुत मन कर रहा था, अच्छा हुआ जो तू आ गई। अभी रहेगी या चली जाएगा।’
‘नहीं, अभी 15 दिन रहूंगी’, मैंने कहा।
रेणु.... अंदर से एक कराहती हुई आवाज आई।
‘आती हूं’, कहकर रेणु बुआ अंदर चली गईं।
‘बड़ी देर लगा दी बुआ आपने और अंदर कौन है।’
‘निर्मला दीदी।’
मैं चैंक पड़ी थी।
‘लेकिन वो यहां क्या कर रही हैं।’
‘बीमार हैं, सारे शरीर को लकवा मार गया है। चल-फिर भी नहीं सकती हैं। उन्हीं के कपड़े बदलवा रही थी, तभी तो इतनी देर लग गई।’
रेणु बुआ ने बताया।
‘‘बदलवा रही थीं मतलब।’
‘दीदी की देखभाल के लिए एक आया रखी है।’
‘ठीक है बुआ मैं चलती हूं। फिर आऊंगी।’
चय पीने के बाद मैं बुआ के यहां से चली आई थी।
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‘अनु कहां है तू, देख गुड़िया की शादी का एलबम लाई हूं। उस दिन तू बिना देखे ही चली आई थी।’
‘अरे बुआ आप, आइए ना बैठिए, ढेर सारी बातें करेंगे। मां भी सो गई हैं।’
‘लेकिन तू तो तैयार दिख रही है। कहीं जा रही है क्या?’
बुआ ने मुझसे पूछा।
अरे नहीं बुआ, मैं तो बस आपके घर ही आ रही थी।
थोड़ी देर बैठने के बाद बुआ जाने को उठ खड़ी हुई थीं, ‘मैं चलती हूं अनु, दीदी को दवा पिलानी है। तू, एलबम रख ले। जब आएगी तो लेती आना।’
‘ठीक है बुआ।’
बुआ चली गई थीं। लेकिन मैं उनके बारे में रात भर सोचती रही थी।
रेणु बुआ दूर के रिश्ते में पापा की बहन लगती थीं। उनके पिताजी को पापा मौसाजी बोलते थे। बुआ जब हमारे पड़ोस में रहने आई थीं तो गुड़िया उनकी गोद में थी। उनके पिता रघुनाथ बाबू और गुड़िया, कुल तीन लोग ही थे उनके घर में। मैं तब स्कूल में पढ़ती थी। गुड़िया से खेलने के बहाने मैं अकसर उनके घर पहुंच जाया करती थी।
शुरू-शुरू में सबने सोचा कि बुआ के पति शायद बाहर रहते हैं और नौकरी की वजह से बुआ यहां अपने पिता के पास रहती हैं। लेकिन धीरे-धीरे सबको पता चल गया था कि बुआ के पति ने दूसरी शादी कर ली है और अब उनका आपस में कोई संबंध नहीं है।
देखते-देख्ेाते गुड़िया सातवीं कक्षा में आ गई थी और मैं भी स्कूल की पढ़ाई पूरी कर काॅलेज में आ गई थी। हमारी और बुआ की उम्र में फर्क होने के बावजूद हमदोनों में काफी दोस्ती हो गई थी। हम घंटों आपस में बातें किया करते थे। स्कूल से आने के बाद बुआ गुड़िया को लेकर हमारे घर आ जाया करती थीं और रात होने पर ही घर जाती थीं। तब तक उनके पिता ट्यूशन पढ़ाकर घर लौट आया करते थे। लेकिन इधर कुछ दिनों से रघुनाथ बाबू घर पर ही ट्यूशन पढ़ाने लगे थे। इस कारण बुआ का हमारे घर आना बिल्कुल ही बंद हो गया था। कभी-कभार मैं ही बुआ के घर चली जाया करती थी।
बढ़ती उम्र, ऊपर से बुआ की चिंता ने रघुनाथ बाबू को बीमार बना दिया था। जीवट वाले आदमी थे, सो किसी तरह खुद को संभाले रखा था। अवकाश प्राप्त करने के बाद तो उन्होंने गुड़िया के आस-पास ही अपनी दुनिया बसा ली थी। लेकिन चिंता से अकेले कब तक लड़ सकते थे। उनकी हालत दिन पर दिन खराब होती चली गई और अवकाश प्राप्त करने के सात साल के भीतर ही उन्होनंे खाट पकड़ ली। पिता के खाट पकड़ लेने से बुआ एकदम ही टूट गई थीं।
एक दिन सुबह-सुबह ही गुड़िया आई थी मुझे बुलाने, बुआ ने उसे भेजा था।
‘अनु जरा गुड़िया का नाश्ता बना दे, मैं बाबूजी को नहलाने ले जा रही हूं। रात बाबूजी की तबियत बहुत खराब हो गई थी, सो मैं रात भर सो नहीं सकी। सुबह आंख लग गई और देर हो गई।’
‘कोई बात नहीं बुआ, मैं अभी बना देती हूं। लेकिन बुआ आप दादाजी को इतनी सुबह-सुबह क्यों नहला रही हैं।’
‘बाबूजी को डाॅक्टर के पास लेकर जाना है। सोचा, गुड़िया को स्कूल छोड़ने जाऊंगी तो साथ में इन्हें भी लेती जाऊंगी।’
लेकिन रघुनाथ बाबू को डाॅक्टर के यहां ले जाने की नौबत ही नहीं आई। अभी बुआ नहलाने के लिए उनके कपड़े उतार ही रही थी कि वो जोर-जोर से खांसने लगे। खांसते-खांसते बेदम हो गए।
‘रात भर ऐसी ही रही है इनकी तबियत’, बुआ ने बताया।
‘बाबूजी सोइए नहीं, बस नहा लीजिए और चलिए डाॅक्टर के पास।’ बुआ ने रघुनाथ बाबू को संभालते हुए कहा।
लेकिन ये क्या? रघुनाथ बाबू तो एकदम से बिछावन पर लेट गए। बुआ के हिलाने-डुलाने पर भी नहीं हिल रहे थे, न बोल रहे थे। बस टुकुर-टुकुर बुआ का मुंह निहारे जा रहे थे।
पहले तो बुआ को लगा कि खांसी के कारण शायद थक गए हैं, इसलिए लेट गए हैं। लेकिन जब बुआ उन्हें दुबारा उठाकर बैठाने लगी तो वो नीचे बिछावन पर गिर पड़े। बुआ समझ गई कि रघुनाथ बाबू नहीं रहे। वह जोर से चिल्ला पड़ी - ‘बाबूजी’।
मैंने तुरंत पापा को फोन करके डाॅक्टर बुलाने को कहा। आधे घंटे बाद पापा डाॅक्टर लेकर आए। डाॅक्टर ने रघुनाथ बाबू को मृत घोषित कर दिया। बुआ और गुड़िया के आंसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। बुआ का तो एकमात्र सहारा ही रघुनाथ बाबू थे। और गुड़िया ने तो पिता का प्यार भी उन्हीं से पाया था। दोनों का रो-रोकर बुरा हाल था।
पापा ने ही बुआ के भाई-बहनों को फोन करके रघुनाथ बाबू के मरने की सूचना दी। बुआ के एक भी भाई-बहन इस शहर में नहीं रहते थे, सो उस दिन उनके आने का प्रश्न ही नहीं था। पापा ने ही रघुनाथ बाबू के दाह-संस्कार का पूरा इंतजाम किया। बुआ के भाई-बहन दूसरे दिन सुबह-सुबह ही आ गए थे। सिर्फ एक बहन निर्मला दीदी नहीं आई थीं। उनसे दादाजी ने रिश्ता तोड़ लिया था। दादाजी ही क्यों, किसी भी भाई-बहन के साथ उनका रिश्ता नहीं था। बुआ घर में सबसे छोटी थीं इसलिए सभी उन्हें बहुत प्यार करते थे।
दादाजी की तेरहवीं के बाद बुआ को उनकी बड़ी बहन एक महीने के लिए अपने साथ अपने घर ले गई थीं। दो दिन पहले ही गर्मी की छुट्टी हुई थी, इसलिए बुआ चली गई थीं। बुआ और गुड़िया के चले जाने के बाद मेरा मन बिल्कुल भी नहीं लग रहा था। जैसे-तैसे करके मैंने एक महीना गुजारा। बुआ और गुड़िया आ चुके थे। दोनों अब सामान्य हो चुके थे। गुड़िया अपने स्कूल जाने लगी थी और बुआ अपने।
पति से अलगाव के बाद दादाजी ने बुआ को बीएड कराकर अपने ही स्कूल में डेली वेज टीचर के तौर पर रखवा दिया था। बाद में बुआ उसी स्कूल में स्थायी हो गई थीं। इस मामले में स्कूल के सभी शिक्षकों ने रघुनाथ बाबू का साथ दिया था। सभी के मन में बुआ के प्रति सहानुभूति थी।
23 की उम्र, गोद में दूधमुंही बेटी और पति का होना न होना बराबर। ऐसे में जीवन चलाने के लिए कमाना तो था ही। पहले-पहल बुआ ने सेल्स गर्ल का काम किया। घर-घर जाकर सामान बेचा। इस बीच उनकी बेटी उनकी मां सम्भालती थीं। धीरे-धीरे बेटी बड़ी हुई और स्कूल जाने लगी। बेटी के स्कूल जाना शुरू करते ही बुआ को पैसे कम पड़ने लगे। भगवान की दया से तब तक बुआ का बीएड पूरा हो चुका था और दादाजी के प्रयास से उन्हीं के स्कूल में उन्हें टीचर की नौकरी भी मिल गई थी।
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मुझे अब तक सिर्फ इतना ही पता था कि बुआ के पति ने बुआ की शादी के कुछ ही दिनों बाद ही उनसे नाता तोड़ लिया था और दूसरी शादी कर ली थी।
दादाजी को गुजरे पांच साल हो गए थे। अब तो गुड़िया भी 12वीं में आ गई थी। रेणु बुआ के चेहरे पर भी उम्र के निशान दिखने लगे थे। जीवन अपनी गति से चल रहा था। बुआ अपनी बेटी के साथ खुश थीं। मैंने कभी भी उनके चेहरे पर उदासी या दुःख की छाया नहीं देखी थी। शायद गुड़िया की खातिर उन्होंने अपना दुख अंदर ही पी लिया था।
उस दिन स्कूल से आने के बाद बुआ बाहर बालकनी में नजर नही आईं तो मुझे लगा कि शायद वो बीमार हैं। इसीलिए मैं उन्हें देखने उनके घर चली गई। वहां जाकर पता चला कि बुआ के यहां कुछ मेहमान आए थे। गुड़िया उनकी आवभगत में लगी थी, जबकि बुआ दूसरे कमरे में थीं। बुआ बीमार तो नहीं लग रही थीं, हां, उदास व गुमसुम अवश्य थीं। बुआ को पहली बार इतना गुमसुम देखा था। समझ नहीं आया कि उन्हें क्या हुआ है? पर मैं इतना जरूर समझ गई थी कि जो मेहमान आए हैं, उनके आने से बुआ खुश नहीं हैं। ऐसे माहौल में ज्यादा देर वहां रुकना मैंने सही नहीं समझा और घर चली आई। दूसरे दिन रविवार था इसलिए बुआ घर पर ही थीं। बुआ के घर के मेहमान शायद सुबह-सुबह ही जा चुके थे। आज बुआ थोड़ा सहज दिखाई दे रही थीं। मुझे देखते ही उन्होंने हाथ से इशारा कर अपने घर बुलाया। मैं बुआ के बुलाते ही उनके घर चली गई।
बुआ ने बताया कि कल गुड़िया के पापा आए थे। गुड़िया ने अपने मामा से नंबर लेकर उन्हें फोन किया था। पिछले साल से ही गुड़िया उन्हें लगातार फोन कर रही थी। सो उन्हें आना पड़ा। पहली बार बाप-बेटी मिले थे। गुड़िया के लिए उसके पापा घड़ी लाए थे, जिसे गुड़िया ने वापस लौटा दिया था। गुड़िया के चेहरे पर सुख-दुःख के मिले-जुले भाव थे। पिता से मिलने की खुशी और उनके जाने का दुःख शायद।
बुआ ने बताया कि पिता का प्यार उन्हें यहां खींचकर नहीं लाया था, वर्ना एक साल पहले ही वो गुड़िया के फोन करने पर चले आते। गुड़िया ने उन्हें धमकी दी थी कि अगर वो उससे मिलने यहां नहीं आते हैं, तो वह उनके आॅफिस आकर उनके बारे में सबको बता देगी।
‘लेकिन गुड़िया को अपने पापा को यहां बुलाने की क्या जरूरत थी।’
‘वो उन्हें दिखाना चाहती थी कि उनके बिना भी दोनों मां-बेटी बहुत खुश हैं। उन्हें किसी चीज की कमी नहीं है। अपना घर है सुख-सुविधा की सारी वस्तुएं मौजूद हैं। इससे ज्यादा गुड़िया को विजय से कुछ भी नहीं चाहिए था।’
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गुड़िया की गेजुएशन पूरी हो गई थी और वह बीएड कर रही थी। बुआ जल्द से जल्द उसकी शादी कर देना चाहती थी। बुआ ने लड़का भी देख रखा था। पैसे भी थे, लेकिन वह जहां भी बात करने जाती लोग पिता के बारे में पूछने लगते। बुआ उन्हें क्या बताती गुड़िया के पिता के बारे में। मन मार कर बुआ ने गुड़िया से अपने पति विजय को फोन करवाया था। लड़का बैंक में था। बुआ नहीं चाहती थीं कि यह रिश्ता हाथ से निकल जाए। गुड़िया के साधारण नैन-नक्श और सांवले रंग की वजह से पहले ही बुआ काफी चिंतित रहती थीं। ऊपर से पिता का साथ न होना उनकी चिंता और बढ़ा देता था। लेकिन भगवान को शायद बुआ पर दया आ गई थी। इस बार गुड़िया के एक बार फोन करने पर ही उसके पिता आ गए थे। कुंडली तो पहले ही मिल चुकी थी। लेन-देन भी फाइनल हो गया था। अब तो बस लड़की दिखाना था।
गुड़िया के भविष्य की चिंता में बुआ रात भर सो नहीं पाई थी। पूरी रात आंखों में काटी थी उन्होंने। सुबह होते ही घर को ठीक करना शुरू कर दिया था बुआ ने। गुड़िया भी अपनी मां का हाथ बंटा रही थी। लेकिन विजय मेहमानों की तरह बस सोफे के एक कोने में बैठे फोन पर बातें करने में मगन थे। उन्हें किसी बात की चिंता नहीं थी।
शाम को लड़के वाले तय समय पर गुड़िया को देखने आ पहुंचे थे। लड़की पसंद आ गई थी उन्हें। गुड़िया सुंदर नहीं थी लेकिन पढ़ाई-लिखाई और घर के काम-काज में होशियार थी। लड़की पसंद आते ही बुआ का चेहरा खिल उठा था। मां ने ये सारी बातें मुझे फोन पर बताई थी।
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आज गुड़िया की शादी थी। लेकिन अब तक विजय नहीं आए थे। फोन भी नहीं लग रहा था उनका। पिछले दो दिनों से मेरा पूरा समय बुआ के घर पर ही बीत रहा था। दोपहर में विजय के आने के बाद मां-बेटी ने चैन की सांस ली थी।
गुड़िया के विदा होते ही बुआ फफक पड़ी थीं। उनके पति स्टेशन के लिए निकल गए थे। न ही बुआ ने उन्हें रुकने के लिए कहा, न ही उनके चेहर पर ऐसे कोई भाव दिखे। काफी देर रोने के बाद शांत हुई थीं बुआ। ऐसा लगा जैसा बरसों के गुबार आज आंखों के रास्ते बह गए थे। बेहद शांत दिख रही थीं वह। शाम होते-होते सारे मेहमान चले गए थे। जो रह गए थे, वे भी दूसरे रिश्तेदारों से मिलने चले गए थे। एकदम अकेली रह गई थीं बुआ। बुआ मैं भी चलूं? धीमी आवाज में मैंने पूछा। तू एक मिनट रुक मैं अभी आई। थोड़ी देर में मिठाई का बड़ा पैकेट लेकर बुआ बाहर्र आइं। ये ले। तूने कुछ नहीं खाया इनमें से। बस भाग-दौड़ में ही लगी रही।
जब मैं चलने लगी तो लपककर बुआ ने मेरा हाथ पकड़ लिया। अनु आज रात तू मेरे पास रुक सकती है, बहुत सी बातें करनी है तुझसे। इस बीच पापा का फोन आ गया था।
‘हैलो, कब तक आ रही हो?’
‘पापा, वो मैं आ...’ इससे पहले की मैं अपनी बात पूरी कर पाती, बुआ ने झट से मेरे हाथ से फोन ले लिया था।
‘भैया... रेणु। आज रात अनु अगर मेरे पास रुक जाती तो? ठीक है भैया आप भाभी को बता दीजिएगा। हां, अभी देती हूं। ये लो अनु, भैया तुमसे बात करेंगे।’ बुआ ने मुझे फोन पकड़ाते हुए कहा।
‘हां, पापा।’
‘बेटा आज तू रेणु के पास ही रूक जा। अकेला महसूस कर रही है।’ उस रात मैं बुआ के पास ही रुक गई थी।
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जाने किसका दुःख था बुआ को, गुड़िया के जाने का या पति के जाने का। पूरी रात रोती रही थीं वो। उस रात अपनी पूरी कहानी बता दी थी मुझे उन्होंने।
बुआ पांच भाई-बहन थीं। तीन बहन, दो भाई। सबकी शादी हो चुकी थी, बस बुआ ही बची थीं। रघुनाथ बाबू चाहते थे कि नौकरी में रहते ही वो बुआ की शादी करके निश्चिंत हो जाएं। सो वो दिन-रात बुआ के लिए लड़का ढूंढने में लगे थे। बहुत जल्द ही उन्हें एक सरकारी नौकरी वाला लड़का भी मिल गया। असल में इस रिश्ते के बारे में खुद बुआ की बड़ी बहन निर्मला दीदी ने बताया था। निर्मला दीदी एजुकेशन विभाग में क्लास वन अधिकारी थीं। लड़का उन्हीं के अधीन क्लर्क था। बुआ की शादी में ज्यादा परेशानी नहीं हुई थी। उन्होंने ग्रेजुएशन कर रखा था। धूमधाम से दोनों की शादी हो गई। पूरी शादी में निर्मला दीदी की सबसे ज्यादा पूछ रही। बुआ के यहां भी और लड़के वालों की ओर से भी। शादी के 10 दिन के बाद ही बुआ के पति उन्हें अपने मां-पापा के पास छोड़कर नौकरी पर चले गए थे। बुआ को बोल गए थे कि 20 दिन बाद लेने आऊंगा। 20 दिन तो नहीं, लेकिन एक महीने बाद वो आए थे बुआ को लेने। बहुत खुश थीं बुआ नए शहर में आकर। उनके चेहरे की खुशी छुपाए नहीं छुप रही थी। स्टेशन पर उतरते ही उन्होंने अपने पति विजय से पूछा,
‘कितनी दूर है यहां से हमारा घर।’
‘बस 15 मिनट का रास्ता है।’
घर पहुंचने पर दरवाजे पर ताला लगा न देख बुआ को थोड़ा आश्चर्य हुआ। लेकिन पूछा कुछ नहीं था उन्होंने।
काॅल बेल बजते ही दरवाजा खुला। यह क्या? निर्मला दीदी। दीदी को देख आश्चर्य से भर उठी थीं बुआ।
‘दीदी आप यहा?’
‘हां, मैंने सोचा, मेरी बहन थकी-हारी आएगी तो क्यों न उसके स्वागत के लिए मैं यहां खड़ी रहूं। सो विजय से तुम्हारे घर की चाबी ले ली थी।’
‘अंदर आ ना। बाहर ही खड़ी रहेगी क्या। क्या सोच रही है? तेरा ही घर है पगली। मैं यहां बगल में ही रहती हूं। चल आ, नहा-धो ले। तब तक मैं खाना परोसती हूं, फिर हम तीनों खा लेंगे।’
लेकिन बुआ का माथा ठनक चुका था। उनके चेहरे का रंग उड़ गया था। यहां आने की खुशी उनके चेहरे से गायब हो चुकी थी। सब खाना खा चुके थे। बुआ को निर्मला दीदी का अपने घर में रहना अच्छा नहीं लग रहा था। घर आने के बाद उनके पति ने एक बार भी उनसे बात नहीं की थी। वे हर बात निर्मला दीदी से ही पूछ रहे थे। घर पर तो दीदी विजय की बाॅस नहीं हैं, फिर क्यों ये इनकी इतनी जी-हजूरी कर रहे हैं। बुआ को यह बात समझ नहीं आ रही थी।
शाम के 7 बज चुके थे। निर्मला दीदी अभी तक यहीं थीं।
‘रेणु बता तू रात में क्या खाएगी? आज तेरी पसंद का खाना बनाती हूं।’
‘दीदी आप रहने दीजिए, मैं बना लूंगी। आप अपने घर जाइए, जीजाजी आपकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे।’ तल्खी से बुआ ने कहा।
‘देख रेणु, मैं तुझे समझा देती हूं, अब तेरे जीजाजी से मेरा कोई लेना-देना नहीं है। पिछले दो साल से हम अलग रह रहे हैं। मेरा बेटा भी उन्होंने ले लिया है। अब मैं तेरे साथ ही रहूंगी। तेरी शादी होने से पहले ही मैंने और विजय ने मिलकर यह घर खरीद लिया था।’
तब तक विजय भी आ गए थे।
‘हां रेणु, निर्मला दीदी अब हमारे साथ ही रहेंगी। एक बात और रेणु, तुम यहां पास-पड़ोस में कहीं मत जाना, यहां अच्छे लोग नहीं हैं।’ विजय ने रेणु बुआ को समझाया था।
रात में दीदी ऊपर अपने कमरे में चली गई थीं। इससे पहले की बुआ कमरे में आतीं, विजय सो चुके थे। सफर की थकान होगी, बुआ ने सोचा और वह भी एक ओर मुंह करके सो गईं। थकी थीं सो सुबह ही आंखें खुली। सुबह जब आंखें खुली तो विजय को बगल में न पाकर वह आशंका से भर उठी। इधर-उधर देखा, आवाज भी लगाई, लेकिन विजय कहीं नहीं दिखे। दबे पांव बुआ ऊपर निर्मला दीदी के कमरे की ओर चल दीं। वहां देखा तो दीदी और विजय चाय पी रहे थे। बुआ जैसे ही मुड़ने लगी कि निर्मला दीदी ने आवाज लगाई -
‘आ जा रेणु। तू सोई थी इसलिए तेरी चाय नहीं बनाई मैंने। मुझे आॅफिस के काम के बारे में कुछ बात करनी थी इसलिए विजय को ऊपर अपने कमरे में बुला लिया था।’
बेमन से बुआ निर्मला दीदी के कमरे में आ गईं।
‘बैठ, तेरे लिए भी चाय बनाकर ले आती हूं।’
‘नहीं दीदी, मैं ब्रश करके चाय पीती हूं।’
‘ठीक है रेणु मैं निकल रही हूं,’ कहकर दीदी सुबह-सुबह ही निकल गई थीं।
‘दीदी टूर पर गई हैं क्या?’ बुआ ने विजय से पूछा।
‘हां’, बेहद संक्षेप में जवाब दिया था विजय ने।
‘आप क्या खाएंगे?’
‘जो भी मन करे बना लो, मुझे खाने में कोई नखरा नहीं है।’
शाम में निर्मला दीदी और विजय साथ ही आफिस से घर आए थे। लेकिन ये क्या, विजय आते ही चुपचाप अपने कमरे में चले गए थे। दीदी भी बिना कुछ बोले ऊपर अपने कमरे में चली गई थीं। बुआ चाय बनाने रसोई में चली गई थीं।
चाय पीते हुए निर्मला दीदी ने विजय से कुछ इशारा किया।
‘रेणु आज दिनभर तुम घर में ही थी ना।’
‘हां, क्यों?’
‘कोई तुमसे मिलने तो नहीं आया था।’
‘नहीं, कोई आने वाला था क्या।’ बुआ ने पूछा।
‘नहीं।’ एक लंबी खामोशी के बाद विजय ने कहा।
‘रेणु तुम्हें यहां कोई तकलीफ तो नहीं है?’
‘कैसी बातें कर रहे हैं आप, मुझे भला यहां क्या तकलीफ होगी।’
‘मैं भी यही चाहता हूं कि तुम यहीं रहो, इसी घर में।’
‘मैं समझी नहीं।’
‘मैं समझाती हूं’, निर्मला दीदी ने कहा।
‘रेणु मैं और विजय एक-दूसरे से प्यार करते हैं। एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते। तुम्हारे यहां रहने से हमें कोई तकलीफ नहीं है, लेकिन तुझे विजय को अपना बहनोई मानना होगा।’
‘ये... क्या... कह....।’
गला रूंध गया था बुआ का। कुछ भी नहीं पूछ पाई थीं, इससे आगे।
‘रेण तुझे विजय को जीजाजी कहना होगा। अभी हम इस शहर में नए आए हैं, इसलिए लोगों को हमारे बारे में कुछ पता नहीं है। तुम घर पर रहोगी तो मुझे भी आराम रहेगा।’
विजय चुपचाप सारी बातें सुन रहे थे। बुआ ने रूंधे गले से उनसे पूछा -
‘फिर शादी क्यों की मुझसे? मेरी जिंदगी बर्बाद क्यों की?’ लेकिन विजय ने कोई जवाब नहीं दिया, वो चुप ही रहे।
‘मुझे बाबूजी के पास वापस भेज दीजिए।’
पति के पास 10 दिन रहने के बाद ही बुआ मायके चली आई थीं। वहां रहती भीं तो किसके सहारे, जब पति ही किसी और का हो चुका था। बहन सौतन बन चुकी थी। मायके आने के बाद बुआ को पता चला कि वह गर्भवती हैं। जब गुड़िया के आने का पता चला तो बुआ ने विजय को फोन कर इसकी सूचना भी दी। लेकिन उन्होने साफ-साफ कह दिया कि बुआ और उनके होने वाले बच्चे से उनका कोई संबंध नहीं है। उसके बाद एक बार भी बुआ ने पलटकर पीछे नहीं देखा था। विजय और निर्मला दीदी से अपने सारे संबंध तोड़ लिए थे उन्होंने। नए सिरे से अपने गर्भ में पल रहे बच्चे के साथ जिंदगी की शुरुआत की थी उन्होंने।
क्या करती बुआ। सारे आस जो टूट चुके थे। छल किसी और ने नहीं, खुद की बड़ी बहन ने किया था। ऐसे में संबंध रखने का फायदा भी क्या था। बुआ ने किसी को भी दोष दिए बिना इसे अपना भाग्य मान लिया था। वह तो बस अपने होने वाले बच्चे की चाह में तड़प रही थीं। दोष देती भीं तो किसे। उस अनजान व्यक्ति को जिसे उन्होंने पति माना था। या, अपनी उस बहन को जिसने उनकी पूरी जिंदगी को एक मजाक बना दिया था। गुड़िया के जन्म के साथ ही बुआ की उदासी दूर हो गई थी।
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अगले दिन जब मैं एलबम लौटाने बुआ के घर गई तो मेरे मन में ढेरों सवाल थे गुड़िया के पापा विजय और निर्मला दीदी को लेकर।
इस बार पूरे तीन साल के बाद मैं अपने शहर वापस आई थी। काम से फुर्सत ही नहीं मिलती थी। सो इस बार पूरे 15 दिन की छुट्टी पर आई थी। गुड़िया की शादी के बाद इस बार ही आई थी मैं।
‘आ अनु बैठ, रात का खाना खाकर जाना।’
‘हां बुआ, आज खा के ही जाऊंगी। बुआ, एक बात पूछू?’
‘पूछ ना। तुझे मुझसे झिझकने की कोई जरूरत नहीं है।’
‘बुआ, निर्मला दीदी यहां हैं, तो गुड़िया के पापा कहां हैं?’
‘वो गुड़िया के पास हैं।’
‘मतलब उन्हें भी लकवा मार गया है।’
‘मैं दो लोगों को तो संभाल नहीं सकती थी, सो दीदी को यहां ले आई।’
बड़ी विचित्र सी हंसी बुआ के होंठों पर उस दिन देखी थी मैंने।
‘लेकिन क्यों बुआ, क्यों ले आई आप इस धोखेबाज को अपने पास? और ऐसे कैसे दोनों को लकवा मार गया?’
‘एक कार एक्सीडेंट में दोनों बुरी तरह घायल हो गए थे। मनाली गए थे घूमने।’
‘ये कब की बात है?’
‘गुड़िया की शादी के 6 महीने बाद ही हो गया था यह सब। मेरी आह तो इन्हें लगनी ही थी अनु।’
‘तो क्या गुड़िया के पति को सब पता है।’
‘हां, पता है। शादी के कुछ समय बाद ही पता चल गया था। भले लोग हैं। गुड़िया को कुछ नहीं कहते। उल्टा उनकी नजरों में मेरा सम्मान और भी बढ़ गया है। इसलिए तो वो विजय को अपने पास ले गए हैं और दीदी को मेरे पास छोड़ गए हैं। साथ रहने का बहुत शौक था ना दोनों को। उसके लिए मेरा इस्तेमाल किया था। आज देख कैसे तड़प रहे हैं दोनों एक-दूसरे के बिना। पूरी जिंदगी अब दोनों ऐसे ही बिताएंगे एक-दूसरे से अलग रहकर और तड़पकर। जैसे मैंने अपनी पूरी जिंदगी बताई है। यही इनका दंड है। अब जाकर भगवान ने मेरे साथ न्याय किया है अनु। अब जाकर मेरे मन को शांति मिली है।’
हंसते-हंसते जोर-जोर से रो पड़ी थीं बुआ।
सच है, यहां का किया यहीं भुगतना पड़ता है। कर्म का फल तो मिलता ही है और जरूर मिलता है। किसी को देर, तो किसी को सबेर।
-तरु श्रीवास्तव

शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

                                                                              मां
'नही मां, मैं नौकरी नहीं छोड़ूंगी, जाकर कह दो उनसे। अगर शादी करनी है तो उन्हें मेरी ये बात माननी होगी।' दीपिका ने गुस्से से कहा।
'देख दीपू, वे तुझसे नौकरी छोड़ने के लिए थोड़ी कह रहे हैं. वो तो बस इतना चाहते हैं कि तू अपने ऑफिस से तीन महीने की छुट्टी ले ले, ताकि उस घर में अच्छी तरह व्यवस्थित हो सके तू। और फिर इसमें गलत भी क्या है? तू शादी के एक सप्ताह बाद ही ऑफिस चली जाएगी तो अपने घर को, घरवालों को समझ ही नहीं पाएगी। उनकी पसंद-नापसंद कहां जान पाएगी।'
'नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। मुझे ज्यादा से ज्यादा 15 दिन की छुट्टियां मिल पाएंगी। साफ-साफ बोला है मैनेजमेंट ने।'
'मैनेजमेंट ने कुछ भी नहीं बोला है। सब तेरे मन की कहानी है। अरे तेरी नौकरी नहीं छोड़ने की इसी जिद के कारण तीन रिश्ते हाथ से निकल गये। मैं कह रही हूं, अगर इस बार यह रिश्ता हाथ से निकल गया तो फिर देखना मैं क्या करती हूं। बड़ी आई नौकरी करने वाली। एक तू ही तो है जिसे कैरियर से प्यार है। हमने कहां पढ़ाई-लिखाई की है। नौकरी की है।'
'आपकी नौकरी सरकारी है मां। आप नहीं समझेंगी, प्राइवेट नौकरी में छुट्टियाें की कितनी मारा-मारी होती है। फिर मेरे ऊपर तो इतनी बड़ी जिम्मेदारी है। प्रोजेक्ट हेड हूं। इतनी लंबी छुट्टी पर चली गई तो मेरे प्रोजेक्ट का क्या होगा? और हां मां, एक बात और बोल देती हूं, अगर आपने मेरी बात नहीं मानी और छुट्टी की जिद पर अड़ी रहीं तो मैं इस बार भी शादी करने से इंकार कर दूंगी। और फिर कभी भी शादी नहीं करूंगी।'
'देख दीपू एक लड़की के लिए उसका परिवार पहले होता है, कैरियर बाद में। फिर कल को तेरे बच्चे होंगे तो क्या तब भी तू छुट्टी नहीं लेगी। देख ससुराल तेरे लिए नई जगह होगी, उसे जानने-समझने में समय तो लगेगा, इसलिए कह रही हूं।' उमा के स्वर में थोड़ा प्यार था इस बार।
'मैं सब जानती हूं मां और फिर इस बारे में अमर से बात भी कर ली है मैंने। उसे कोई परेशानी नहीं है।'
'उमा के बहुत समझाने पर दीपिका ने एक महीने की छुट्टी के लिए अावेदन कर दिया। शादी का मामला था और फिर दीपिका एक हार्ड वर्किंग एंप्लॉई थी, सो थोड़ी ना-नुकुर के बाद उसे छुट्टी मिल गई।'
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दीपिका पढ़ी-लिखी होने के साथ ही संस्कारी भी थी। न तो उसे अपने पद का गुमान था, न ही पैसे का। व्यवहारकुशल तो वह थी ही। सो शादी के एक महीने के भीतर ही उसने अपने ससुरालवालों का दिल जीत लिया। अमर तो पहले से ही उसे पसंद करता था। दीपिका के व्यवहार ने उसे उसके और करीब ला दिया।
शादी के एक साल होने काे थे। लेकिन अभी तक बच्चे की कोई संभावना नजर नहीं आ रही थी। अमर की मां नीलू से रहा न गया तो उन्होंने दबी जबान में दीपिका से इस बारे में पूछ ही लिया।
'मां अभी एक साल और प्रतीक्षा कीजिए। मेरा यह प्रोजेक्ट अगले साल पूरा हो जाएगा, तब आपकी बात मान लूंगी मैं। प्लीज मां मुझे समझने की कोशिश कीजिए। ऐसा नहीं है कि मुझे बच्चे पसंद नहीं, पर मेरे लिए मेरा कैरियर सबसे महत्वपूर्ण है। बहुत मेहनत की है मैंने यहां तक पहुंचने के लिए।'
'क्या अमर को सबकुछ पता है।'
'हां मां, हम दोनों की सहमित से ही सब हो रहा है।'

'ठीक है जैसा तुम्हें ठीक लगे।' चेहरे पर थोड़ी उदासी लिए नीलू वहां से चली आई थी।
प्रोजेक्ट पूरा होने के बाद दीपिका और अमर ने बच्चे के बारे में गंभीरता से सोचना शुरू कर दिया था.
'मां उठो देखो, दीपिका को उल्टियां हो रही हैं।' अमर के चेहरे पर घबराहट थी और वह लगातार नीलू का दरवाजा खटखटा रहा था।
'क्या हुआ, दरवाजा क्याें पीट रहा है?' नीलू ने दरवाजा खोलते हुए पूछा।
'मां, दीपिका।'
'क्या हुआ दीपिका को।'
'उसे रात से उल्टियां हो रही हैं।' नीलू के चेहरे पर मुस्कुराहट खेल गई।
'मां वहां दीपिका की हालत खराब हो रही है और आप यहां मुस्कुरा रही हैं।'
'तू नहीं समझेगा पगले।' नीलू तेज कदमों से चलते हुए दीपिका के पास आई।

'दीपिका कैसी तबियत है अब?'

'अभी ठीक है मां।' एक हल्की सी हंसी दीपिका के चेहरे पर भी तैर गई।
नीलू की प्रतीक्षा समाप्त हो चुकी थी। दीपिका मां बनने वाली थी। सबकुछ सामान्य था, इसलिए दीपिका नियमित ऑफिस जाती रही। एक दिन की भी छुट्टी नहीं ली।
आठवां महीना पूरा होते ही जब दीपिका ने मातृत्व अवकाश के लिए आवेदन किया तो सबने उससे पूछा कि क्या उसे विश्वास है कि वह काम पर दुबारा लौटेगी।
'हां, हां क्यों नहीं। मां हैं घर में, वो संभाल लेंगी मेरे बच्चे को।'

'लेकिन जब तुम ज्वॉयन करोगी तो तुम्हारा बच्चा बहुत छोटा होगा। ऐसे में उसे तुम्हारे साथ की जरूरत होगी। कैसे मैनेज करोगी तुम नौकरी और बच्चा दोनों?' दीपिका की बॉस अजया ने पूछा।
'देखिए मैम, बच्चा अपनी जगह, कैरियर अपनी जगह। छह महीने की छुट्टी बच्चे के लिए ही तो ले रही हूं। अगर वो मां से नहीं संभला तो क्रेच में डाल दूंगी, लेकिन नौकरी नहीं छोड़ूंगी।' दीपिका ने दो टूक अजया से कहा।

'चलो जिसमें तुम्हारी खुशी। हम भी नहीं चाहते हैं कि तुम नौकरी छोड़कर घर बैठो।'

'थैंक्यू मैम।' दीपका ने खुश होते हुए कहा।
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'बधाई हो, दीपिका ने एक सुंदर सी बेटी को जन्म दिया है।' डॉक्टर ने जब बाहर आकर अमर को यह बात बताई तो घरवालों के चेहरे खिल उठे। छह महीने की हो चुकी थी ईशी। मातृत्व अवकाश भी खत्म हो चुका था। आज दीपिका को ऑफिस ज्वॉयन करना था। वह तैयार हो चुकी थी। ईशी को नीलू की गोद में देकर, उसका माथा चूमकर झटके के साथ बाहर निकल आई वह। लेकिन ये क्या, उसके पैर तो आगे ही नहीं बढ़ रहे थे। वह वापस ईशी के पास लौट आई। एक बार फिर उसे गोद में लेकर प्यार किया।
'बाय बेटे। ममा शाम को आएगी तब आपके साथ खेलेगी। तब तक आप दादी के साथ खेलना, बाय।'
'दीपिका जल्दी आओ बाबा। देर हो रही है।' अमर ने आवाज लगाई।
ऐसा पहली बार हुआ था जब ऑफिस जाने का मन नहीं कर रहा था दीपिका का। वह पूरे रास्ते अनमनी सी बैठी रही। ऑफिस पहुंचकर औपचारिकतावश सबसे हाय, हैलो करते हुए उसने अपनी केबिन में प्रवेश किया। अपनी कुर्सी पर बैठते हुए पहले सी खुशी महसूस नहीं हो रही थी आज। उसे आये हुए दो घंटे हो चुके थे, लेकिन अब तक वह काम पर ध्यान नहीं लगा पाई थी। उसकी आंखों के सामने बार-बार ईशी का भोला सा चेहरा घूम जा रहा था। आंखों से आंसू बह निकले थे उसके। कपड़े भी दूध से गीले हो गये थे। नहीं, मैं अपनी बच्ची के बिना नहीं रह सकती, साेचते हुए दीपिका दो बार कुर्सी से उठी और फिर वापस बैठ गई। लेकिन काम में ध्यान नहीं लगा पाई।
लंच का समय हाे चुका था।
'दीपिका लंच कर लो।' अजया की आवाज से उसका ध्यान टूटा। दीपिका और अजया साथ ही लंच करते थे।
दीपका के गले से एक कौर भी नीचे नहीं उतरा। वह अजया के केबिन से निकल आई। थोड़ी देर बात जब वह वापस आई तो उसके हाथ में इस्तीफा था।
'यह क्या है?' अजया ने पूछा।
'मेरा इस्तीफा मैम। मुझे नौकरी नहीं, मेरी बच्ची का साथ चाहिए। मेरी प्राथमिकताएं बदल गयी हैं। अब मैं एक मां हूं। मेरे लिए अपनी बच्ची के पास रहना ज्यादा जरूरी है।'
इससे पहले की अजया कुछ कहती, दीपिका उसकी केबिन से बाहर निकल आई थी। घर पहुंचकर ईशी को सीने से चिपकाकर वह जोर-जोर से रो पड़ी थी। ईशी को दूध पिलाते हुए, उसकी बालों में अंगुलियां फिराते हुए एक अजीब सा सुख महसूस कर रही थी वह।
'अरे दीपिका, आज इतनी जल्दी कैसे?' आॅफिस से आते ही अमर ने पूछा।
'मैंने इस्तीफा दे दिया।'
'लेकिन क्यों? तुम्हें तो नौकरी बहुत पसंद थी। कहीं कोई बात तो नहीं हो गई तुम्हारी अनुपस्थिति में।'
'नहीं ऐसा कुछ नहीं है। मैं कामकाजी महिला नहीं, एक मां बनना चाहती हूं। हर पल अपनी बच्ची के पास रहना चाहती हूं।'
'जैसी तुम्हारी इच्छा।' अमर ने कहा और कमरे में चला गया।
एक सप्ताह बाद ही दीपिका के पास अजया का फोन आया।
'दीपिका कल हमने तुम्हारे लिए एक फेयरवेल पार्टी रखी है। अमर और ईशी के साथ जरूर आना। और हां, कोई बहाना नहीं चलेगा।'
'जी मैम।' 
अगले दिन अमर और ईशी को साथ लेकर जब दीपिका ऑफिस गई, तो अजया उसे और अमर को लेकर कांफ्रेंस रूम में आ गई।
'दीपका हमने इसी ऑफिस में एक क्रेच की व्यवस्था की है। कल से ईशी वहीं जाएगी। और हां, मैंने तुम्हारा इस्तीफा स्वीकार नहीं किया है। तुम काम भी करोगी और बीच-बीच में ईशी से मिलती भी रहोगी। अब तो कंफर्टेबल हो न तुम? तुम्हारी बेटी तुम्हारी आंखों के सामने रहेगी। ईशी बेटी का आज ही यहां एडमिशन होगा। उसके बाद दूसरे स्टाफ के बच्चों का यहां एडमिशन लिया जाएगा। अब तो खुश हो।'

'बहुत खुश। थैंक्यू मैम, थैंक्स ए लॉट।'

'नो थैंक्यू प्लीज। एक मां अपने बच्चे के लिए पूरी जिंदगी दे सकती है तो क्य एक कंपनी उसके बच्चों के लिए क्रेच की व्यवस्था नहीं कर सकती। मुझे पहले ही एेसा करना चाहिए था। खैर, देर आए, दुरुस्त आए।'

'मैम पार्टी, दीपिका ने चहकते हुए पूछा।'

'होगी, क्रेच खुलने की खुशी में।'

पार्टी में सब नाच-गा रहे थे। डीजे पर पुराने गाने की धुन बज रही थी -

'तुझे सूरज कहूं या चंदा, तुझे दीप कहूं या तारा ...........।'

दीपिका ईशी का चेहरा देख फूली न समा रही थी। 


- तरु श्रीवास्तव

रविवार, 12 नवंबर 2017

अकड़

खिचड़ी हो चुके बाल और चेहरे पर उभर आये उम्र के निशान भी अंजनी फूफाजी की अकड़ को कम नहीं कर पाये थे। अंजनी फूफाजी अपने दोस्तों के बीच एक बेहद सुलझे हुए इंसान की तरह पेश आते थे। सबकी सहायता को हरदम तत्पर। बाहरी दुनिया में वो नायक थे नायक। लेकिन घर की चैखट के भीतर उनका यह रूप खलनायक में परिवर्तित हो जाता था। बुआ और उनके दोनों बच्चे उनके आते ही सहमकर चुप हो जाते थे। घर में शांति छा जाती थी जैसे सभी गूंगे हों।
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उस दिन चाय में चीनी थोड़ी ज्यादा क्या हुई फूफाजी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। आव देखा न ताव, चाय का कप जमीन पर पटक बुआ पर हाथ उठा दिया। बुआ ने डर के मारे आंखें बंद कर लीं और सहमकर दो कदम पीछे हट गईं, हर बार की तरह। तभी अचानक उनके बेटे ने उनका हाथ बीच में पकड़ लिया और नीचे झटकते हुए जोर से चिल्लाया - 
बस पापा अब और नहीं। अब अगर आपने कभी भी मम्मी पर हाथ उठाया या उसे अपमानित किया तो मेरा हाथ आप पर उठ जाएगा।
ऐसा पहली बार हुआ था जब घर के किसी सदस्य ने अंजनी फूफाजी का यूं विरोध किया था। जवान बेटे के जोर से हाथ झटकने या उसके गुस्से के कारण, चाहे जो भी हो, फूफाजी झटका खाकर नीचे गिर पड़े थे। और देर तक नीचे ही पड़े रहे थे। कोई उन्हें उठाने नहीं आया था। बेटा-बेटी उन्हें अकेला छोड़ बुआ को दूसरे कमरे में लेकर चले गये थे।
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बेटे के विरोध ने उन्हें रात भर सोने नहीं दिया था। सो सुबह देर तक सोते रहे थे। सुबह चाय के साथ बेटी ने जब उन्हें जगाया तो उठते ही चाय एक ओर रख उसके गले लग फूट-फूटकर रो पड़े थे। ऐसा लगा जैसे सारी अकड़ आंखों के रास्ते बह रही हो। फिर बुआ तथा बेटे को बुलाया और रात के अपने बर्ताव के लिए क्षमा मांगी। शायद उन्हें बुआ की ताकत का अहसास हो गया था।
सच है, जवान हो रहे बच्चों के सामनेे सबकी अकड़ हवा हो जाती है। ठीक उसी तरह जिस तरह अंजनी फूफाजी की अकड़ हवा हो गई थी।
taru srivastava 

बुधवार, 8 नवंबर 2017

गौरी
पूरे मोहल्ले में गौरी के गिरफ्तार होने की चर्चा थी। ड्रग्स बेचने और रेव पार्टी आयोजित करने के लिए गौरी को कल रात ही पुलिस ने गिरफ्तार किया था।
गौरी को मैं ज्यादा तो नहीं जानती थी। कुल पांच से छह मुलाकात ही हुई थी उससे। जहां मैं गिटार सीखने जाती थी वहां वह भी आती थी। दो साल पहले की ही तो बात है ये। वह ज्यादातर शांत ही रहती थी, लेकिन जब बोलती तो उसे खुद भी पता नहीं होता कि वह क्या बोल रही है। पहली मुलाकात में ही उसकी बातें मुझे कुछ असामान्य सी लगी थीं। दूसरी मुलाकात में हमारी कोई बात नहीं हुई थी। लेकिन तीसरी क्लास में ही मेरी उससे जबरदस्त बहस हो गई थी। उसे अपने देश, यहां के सिस्टम, रीति-रिवाजों, धार्मिक आयोजनों से खासी चिढ़ थी। उसे विदेश, वहां के लोग, वहां के सिस्टम, कानून सब बहुत प्रभावित करते थे।
बातों-बातों में ही मैंने जाना था कि उसके माता-पिता ने उसे कभी भी समय नहीं दिया था। न ही उसे वो प्यार मिला था, वो संभाल मिली थी जो इस उम्र के बच्चों को मिलनी चाहिए थी।
गौरी की उम्र ज्यादा नहीं थी। वह महज 20-21 साल की एक अल्हड़ सी लड़की थी। शायद यही वजह थी कि आज उसकी गिरफ्तारी सभी न्यूज चैनलों और लोगों के लिए कौतूहल का विषय थी। लेकिन गौरी की गिरफ्तारी से मुझे कोई झटका नहीं लगा था। उससे जितनी बार भी मुलाकात हुई थी मेरी, बातों-बातों में कई बार उसने ड्रग्स और उसके सेवन को सही ठहराने की कोशिश की थी।
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गौरी के पिता अकसर अपने काम के सिलसिले में शहर से बाहर ही रहते थे। मां प्राॅपर्टी डीलर थीं, सो वह भी देर रात ही घर आती थीं। उसका बड़ा भाई भी बिजनेस के सिलसिले में देश-विदेश की यात्रा पर रहता था। पैसे और सुख-सुविधाओं की कोई कमी नहीं थी उसकी जिंदगी में। कमी थी तो अपनों के प्यार की, साथ की। प्यार की भूखी थी वह। उसे अपनों का साथ चाहिए था। कोई ऐसा चाहिए था जो उसे समझ सके, उसकी बातें सुन सके। ऐसे में उसके ऊपर की मंजिल पर किराए पर रहने के लिए जब दो विद्यार्थी राहुल और रमन आए तो सहज ही गौरी से उनकी दोस्ती हो गई। राहुल और रमन उससे महज डेढ़-दो साल ही बड़े थे। बस यहीं से गौरी की सोच विकृत होनी शुरू हो गई। पिछले दो सालों में गौरी में काफी बदलाव आ गया था। हमेशा शांत रहने वाली गौरी अब काफी मुखर हो गई थी। बात-बे-बात किसी से भी लड़ने पर उतारू रहने लगी थी। पिछले साल तो ग्रेजुएशन के फस्र्ट ईयर में वह फेल भी हो गई थी। और आज खबर आई कि उसे पुलिस ने ड्रग पैडलिंग और रेव पार्टी आयोजित करने के आरोप में उसे गिरफ्तार कर लिया है।
असल में गौरी के घर में किराए पर रहने वाले राहुल और रमन, काॅलेज के फस्र्ट ईयर में ड्रग पैडलर के संपर्क में आए थे। ड्रग्स की लत लगने के बाद उन दोनों ने अपने खर्चे निकालने के लिए काॅलेज के छात्रावास में ही ड्रग बेचना शुरू कर दिया था। लेकिन काॅलेज प्रिंसिपल के संदेह होने पर दोनों ने छात्रावास छोड़ दिया था और बाहर किराए पर रहने लगे थे।
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राहुल और रमन का व्यवहार बहुत दोस्ताना था। यही कारण था कि गौरी शीघ्र ही उनके साथ घुल-मिल गई। धीरे-धीरे इन तीनों की दोस्ती गहराने लगी। चूंकि घर पर गौरी अकेली रहती थी, इसलिए तीनों एक साथ ही खाते-पीते और पढ़ाई करते। गौरी ओपन स्कूल से पढ़ाई कर रही थी, ऐसे में राहुल उसे पढ़ा देता था। दोनों के विषय एक ही थे। अब गौरी बेहद खुश रहने लगी थी। राहुल और गौरी में नजदीकियां काफी बढ़ चुकी थीं। हालांकि गौरी अभी भी राहुल और रमन के ड्रग पैडलर होने की बात से अनजान थी। एक दिन जब गौरी किसी काम से राहुल के कमरे में गई तो उसने उसे फोन पर किसी से ड्रग के लेन-देन की बात करते सुना। गौरी को सामने पाकर राहुल घबरा सा गया और फोन बीच में ही काट दिया। जब गौरी ने राहुल से इस संबंध में पूछताछ की तो पहले तो उसने आना-कानी की, लेकिन बाद में उसे सबकुछ साफ-साफ बता दिया कि वे और रमन दोनों ही इसमें साझीदार हैं। वे दोनों ही विश्वविद्यालय में ड्रग सप्लाई करते हैं। राहुल की बातें सुन गौरी तो जैसे सुन्न सी हो गई। उसकी आंखें फटी की फटी रह गई। वह सोच में पड़ गई कि जिस राहुल और रमन को वह मेघावी विद्यार्थी समझती थी, वे तो ड्रग के दलदल में धंसे पड़े हैं। लेकिन जब राहुल ने उसे इस धंधे में होने वाली कमाई के बारे में बताया तो उसे भारी आश्चर्य हुआ।
राहुल को अब इस बात का डर सता रहा था कि कहीं गौरी उनका भंडाफोड़ न कर दे और कहीं उन्हें यह घर भी न छोड़ना पड़े। इस मुश्किल से निकलने के लिए राहुल ने अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाने शुरू कर दिए। जब उसे कुछ भी नहीं सूझा तो उसने गौरी से अपने धंधे में शामिल होने की बात कही। लेकिन गौरी ने राहुल को स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया और कहा कि उसके पास पैसे की कोई कमी नहीं है। गौरी ने राहुल को भी इस धंधे से दूरी बनाने की सलाह दी। उस समय राहुल भी नहीं बोला और गौरी से नीचे चले जाने को कहा। गौरी उदास मन से नीचे चली आई। उसे लगा कि राहुल उससे नाराज हो गया है। राहुल का साथ छूटने के डर ने उसे भीतर तक कंपा दिया था। नीचे आकर वह देर तक रोती रही थी। लेकिन राहुल भी कहां हार मानने वाला था, गौरी के नीचे जाते ही वह उसे मनाने की युक्ति ढूंढनी शुरू कर दी।
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‘गौरी दरवाजा खोलो।’
दरवाजे पर रमन खड़ा था।
‘अरे तुम कब आए।’
‘पिछले 10 मिनट से तुम्हें आवाज दे रहा हूं। सोयी थी क्या?’
‘नहीं तो।’
इससे पहले की रमन कुछ कहता, गौरी ने उसे जता दिया था कि उसे उसके ड्रग पैडलर होने की बता पता है। साथ ही यह भी जता दिया था कि वे और राहुल गलत काम कर रहे हैं और कभी भी वे पुलिस की गिरफ्त में आ सकते हैं।
‘तुम जो कह रही हो वह सही है गौरी, लेकिन अब हमारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। हमे पैसे चाहिए। इस शहर में रहने के लिए और अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए। और इस धंधे में खूब पैसा है। और फिर हम अपने पास ड्रग्स कहां रखते हैं। हम तो बस बिचौलिये का काम करते हैं।’ रमन ने गौरी का गुस्सा ठंडा करने के लिए कहा।
‘खैर मैं तुम्हें यह बताने आया था कि कल सुबह हम तुम्हारा मकान छोड़कर चले जाएंगे।’
‘क्या राहुल भी।’ गौरी ने पूछा।
‘हां, क्योंकि उसे लगता है कि हमारी सच्चाई जानकर तुम हमसे नाराज हो गई हो। ऐसे में हमारा यहां रहना ठीक नहीं है। मैं तो अभी इसी समय अपने घर जा रहा हूं। मां बीमार हैं, लेकिन कल सुबह राहुल मकान खाली कर देगा।’
इतना बोलकर रमन सीधे बाहर निकल गया।
रमन के जाते ही गौरी दरवाजा बंद कर अंदर आ गई। जिसका डर था आखिर वही हुआ। अब राहुल भी उसकी जिंदगी से चला जाएगा। वह फिर से अकेली रह जाएगी। लेकिन वह एक ड्रग पैडलर से प्यार कैसे कर सकती है।
नहीं, नहीं, राहुल जाता है तो जाए, उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। वह इस दर्द से बाहर निकल आएगी। लेकिन गलत का साथ नहीं देगी।
लेकिन ड्रग्स लेना तो आजकल का फैशन है। और राहुल तो कभी-कभार ही लेता है। वह अपने पास ड्रग्स भी कहां रखता है। वह तो किसी और से लेकर उसे दूसरों तक पहुंचा देता है। वो भी इसलिए ताकि वो अपनी पढ़ाई और दिल्ली में रहने का खर्च उठा सके।
पर है तो यह गैरकानूनी धंधा ही। तो आजकल कानून कौन मानता है भला। उसके पिता और भाई भी तो पैसा कमाने के लिए अपने बिजनेस में गलत काम करते हैं। काफी देर तक गौरी इसी ऊहापोह में फंसी रही। तभी दरवाजे पर एक बार फिर खट-खट हुई। बाहर जाकर देखा तो दरवाजे पर राहुल खड़ा था।
‘गौरी अंदर आ जाऊं?’
‘आ जाओ।’
‘यहां क्यों आये हो?’
‘तुम्हें बताने कि तुम्हें कितना प्यार करता हूं? कल सुबह मैं तुम्हारा मकान खाली कर दूंगा, ताकि तुम्हें मेरे कारण किसी तरह की कोई परेशानी न हो। अंकल-आंटी को कोई परेशानी न हो। लोग तुम्हारे बारे में उल्टी-सीधी बातें न करें। आज रात आंटी को बता दूंगा। तुम ये किराए के पैसे रख लो।’
‘लेकिन किराया तो एडवांस चलता है।’
‘फिर भी तुम ये पैसे रख लो, मैं अचानक से तुम्हारा मकान छोड़कर जो जा रहा हूं।’
‘कहां जाओगे?’
‘अपने दोस्त के घर रह लूंगा कुछ दिन। इसी बीच दूसरा मकान तलाश लूंगा।’
‘तुमने मेरे साथ ऐसा क्यों किया राहुल? क्यों मुझसे नजदीकियां बढ़ाई, जबकि तुम जानते थे कि तुम एक ड्रग पैडलर हो?’
‘मैं शुरू से ड्रग पैडलर नहीं था गौरी। मुझे इस हालत में पहुंचाने का काम यहां के सिस्टम और कानून ने किया है। मेरी बहन को उसके ससुरालवालों ने दहेज के लिए जलाकर मार डाला था। वो पैसे वाले लोग थे और हम मीडिल क्लास। पुलिस ने पैसे लेकर मामले को रफा-दफा कर दिया। हमें रोज-रोज जान से मारने की धमकियां मिलने लगी थीं। बहन के असमय मर जाने से हमारे माता-पिता टूट चुके थे। पैसे न होने की बेचारगी उनके चेहरे पर साफ नजर आती थी। पैसे होते तो दहेज के कारण उनकी बेटी की जान न जाती। बसी उसी पल मैंने सोच लिया था कि चाहे जो भी तरीका अपनाना पड़े, सही या गलत, मुझे बहुत सारा पैसा कमाना है।’
बोलते-बोलते आंसूओं से पूरा चेहरा भर गया था राहुल का।
‘एक और बात मैं कहना चाहता हूं गौरी, मैं तमसे बहुत प्यार करता हूं, लेकिन यहां के सिस्टम और कानून से उतनी ही नफरत करता हूं। अब ये तुम्हारे ऊपर है कि तुम मेरे बारे में क्या धारणा बनाती हो। मैंने अपनी सारी सच्चाई तुम्हारे सामने रख दी है।’
‘हां, एक बात और, मैं इस धंधे से पीछे नहीं हटने वाला हूं। सिस्टम और कानून ने मुझे जितनी तकलीफ दी है, उसके विरुद्ध जाकर मुझे बेहद शांति मिल रही है।’
गौरी की प्रतिक्रिया जानने के लिए राहुल कुछ देर गौरी के कमरे में रूका, लेकिन जब गौरी ने कुछ भी नहीं कहा तो वह वहां से चला गया।
बहुत देर तक गौरी यूं ही शांत बैठी रही। वह चुपचाप टकटकी लगाए घड़ी की ओर देखती रही। रात के 10 बज चुके थे। गौरी की मम्मी अब तक घर नहीं आई थीं। गौरी उन्हें फोन करने जा ही रही थी कि तभी फोन की घंटी बज उठी।
‘ट्रिन-ट्रिन। हैलो, हां मम्मी, बोलो।’
‘आज मैं घर नहीं आऊंगी। तेरी नानी की तबियत खराब है। उनके पास जा रही हूं। मुझे एक सप्ताह लग जाएगा। मैंने राहुल से बोल दिया है, वह तेरा ख्याल रखेगा।’
‘लेकिन मम्मी, राहुल क्यों? मैं खुद भी तो अपना ख्याल रख सकती हूं।’
‘हां, जानती हूं।’ और मम्मी ने फोन काट दिया था।
कुछ देर सोचने के बाद गौरी ऊपर राहुल के कमरे में गई।
‘राहुल तुमने मम्मी को क्यों नही बताया कि तुम कल सुबह फ्लोर खाली कर रहे हो?’
‘ इससे पहले की मैं कुछ कहता, आंटी ने तुम्हारी जिम्मेदारी मुझे सौंप दी। मैं उनका विश्वास नहीं तोड़ सकता हूं गौरी।’
‘तो फिर तुम कल नहीं जा रहे हो?’
‘नहीं। जब आंटी आ जाएंगी तब चला जाऊंगा। वैसे तुमने मेरे बारे में क्या सोचा है गौरी? मुझे माफ करोगी? मैं इस धंधे में इतना आगे पहुंच चुका हूं कि अब पीछे हटने का प्रश्न ही नहीं है।’
गौरी एकदम से राहुल का मुंह निहारने लग गई थी। कुछ देर शांत रहने के बाद गौरी राहुल से लिपट गई।
‘मुझे छोड़कर मत जाओ राहुल। तुम तो जानते हो कि मैं कितनी अकेली हूं। और फिर तुमने कुछ भी गलत नहीं किया है। तुम्हें ऐसा बनने के लिए सिस्टम ने मजबूर किया है। और हां, एक बात और, आज से तुम्हारे धंधे में मैं भी शामिल हो रही हूं। सब गलत तरीके से पैसे कमाते हैं, तो हम क्यों नहीं। और फिर जिसके पास पैसे होते हैं, वह तो हर अपराध करके बच निकलता है। हम भी बच निकलेंगे।’
एक ही सांस में बोल गई थी गौरी। राहुल चुप उसका मुंह ताकता रह गया था। उस रात दोनों के बीच की सारी दूरियां मिट गई थीं। सुबह होने पर दोनों के मन में रात की घटना को लेकर कोई पछतावा नहीं था।
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गौरी के इस धंधे में शामिल होने की खुशी में राहुल ने शानदार पार्टी दी थी। अब तो ऐसी पार्टियां हर महीने होने लगी थीं। इन पार्टियों की आड़ में राहुल और गौरी घर से ही ड्रग्स का धंधा चलाने लगे थे।
सिस्टम और कानून चाहे कितना भी लचर क्यों न हो, समाज में कुछ तो ईमानदार लोग होते ही हैं। बस ऐसे ही कुछ लोगों से उस दिन अपने पड़ोस में उलझ गई थी गौरी। उसके बदले तेवर, हर महीने होने वाली पार्टी और घर पर लड़कों के जमावड़े ने उन ईमानदार लोगों के मन में शक के बीज बो दिए थे।
कई बार गौरी के पड़ोसी दीनानाथ जी ने उसे समझाने की कोशिश की थी, उसे देर रात तक पार्टी न करने की सलाह दी थी। लेकिन गौरी हर बार उन्हें टका सा जवाब देती हुई कहती,
‘मेरी मर्जी, मैं अपने घर में जो चाहे करूं। आप होते कौन हैं नसीहत देने वाले।’
गौरी का इस तरह अपने पिता को जवाब देना दीनानाथ जी की बेटी अलका को बिल्कुल ही पसंद नहीं आता था।
वह दीनानाथ जी से अक्सर कहती, ‘आप क्यों गौरी को हमेशा टोकते हैं। जमाना बदल चुका है। लेट नाइट पार्टी आज की जीवनशैली का हिस्सा है। ऐसे में गौरी कुछ भी गलत नहीं कर रही है।’
अलका के इस तरह के विचार ने उसे गौरी और राहुल के नजदीक ला दिया था। अब तीनों ही दोस्त बन चुके थे। अलका ने अपनी इस दोस्ती को बनाए रखने के लिए अपने पिता की तरफ से राहुल और गौरी से माफी भी मांग ली थी।
अलका का यूं माफी मांगना गौरी को अपनी बड़ी जीत लगी। उसे लगा कि उससे डरकर दीनानाथ जी ने अलका को माफी मांगने भेजा है। अब वह खुलकर अलका के सामने ड्रग्स का लेन-देन करने लगी थी। गौरी के इस धंधें में शामिल होने के बाद से राहुल कहीं पीछे छुपता चला गया था। या यूं कहें कि वह गौरी को इस दलदल में धकेल खुद को इस धंधे से एक तरह से अलग कर चुका था। इस तरह 6 महीने तक चली इस दोस्ती ने अलका को राहुल और गौरी की हर एक गतिविधियों की जानकारी दे दी थी।
और जब कल रात गौरी ने रेव पार्टी आयोजित की तो अलका ने चुपके से पुलिस को फोन कर इसकी जानकारी दे दी थी। उसके थोड़ी देर बाद ही उसके घर पुलिस का छापा पड़ गया था। छापे के दौरान गौरी, राहुल सहित दूसरे कई विद्यार्थी भी वहां से गिरफ्तार किए गए थे। गौरी के माता-पिता को जब उसके ड्रग पैडलर होने और उसके गिरफ्तार होने की बात पता चली तो उनके तो जैसे होश ही उड़ गए।
गौरी की मम्मी का तो रो-रोकर बुरा हाल था। ‘मेरी बेटी ड्रग पैडलर हो ही नहीं सकती। वह तो बेहद शांत और सीधी है। हां, पिछले दो सालों में उसका स्वभाव जरूर बदला है, पर यह बदलाव तो उम्र बढ़ने के साथ सबके स्वभाव में आता है। नहीं-नहीं पुलिस उनकी बेटी पर गलत इल्जाम लगा रही है।’ वह बार-बार इसी बात की रट लगाए जा रही थीं।
‘नहीं मां, पुलिस जो कह रही है वह बिल्कुल सच है। मैं राहुल के साथ मिलकर ड्रग्स का धंधा करती हूं और इसका मुझे कोई अफसोस नहीं है। आप इन्हें मुंहमांगा पैसा दे दीजिए, मेरी और राहुल की बेल हो जाएगी। बाद में पैसे के दम पर हम मुकदमा भी जीत जाएंगे।’
‘तड़ाक।’ एक जोरदार थप्पड़ रसीद किया था महिला पुलिस अधिकारी ने गौरी के गाल पर। कड़ककर बोली थी -
‘हर कोई बिकाऊ नहीं होता है गौरी। ठीक उसी तरह, जिस तरह हर लड़की तुम्हारी तरह अपराधी नहीं होती है।’
‘देखिए इसे हमने रंगे हाथों पकड़ा है और इसकी बेल नहीं हो सकती है। आप लोग जा सकते हैं।’ महिला पुलिस अधिकारी ने गौरी के मम्मी-पापा से कहा।
‘इसे लाॅक अप में बंद कर दो।’
गौरी अवाक खड़ी उस महिला पुलिस अधिकारी का मुंह ताकती रह गई थी। ड्रग्स के धंधे में राहुल का साथ देना उसके भविष्य को चैपट कर गया था। बहुत ही चालाकी से राहुल ने उसे इस धंधे में धकेलकर खुद को आजाद कर लिया था।
राहुल सहित दूसरे विद्यार्थियों को ड्रग्स लेने के जुर्म में 6 महीने की सजा हुई थी, जबकि गौरी को ड्रग पैडलिंग के लिए सात साल की सजा सुनाई गई थी। अकेलापन और राहुल पर अंधविश्वास ने उसे कहां से कहां पहुंचा दिया था।
- तरु श्रीवास्तव

शनिवार, 4 नवंबर 2017

एक बार फिर

एक बार फिर
एक बार फिर
उमर रहा है वात्सल्य
अजन्मा के प्रति
जिसे देखा तक नहीं।
पहले भी कई बार
गर्भ ने आकार लिया है
बिना देखे ही उससे
घंटों बातें की है मैंने।
हाथ-पांव हिलाते हुए,
किलकारियां भरते हुए
अपनी ही रचना को साक्षात देखने का स्वप्न
किंतु,
अभी भी अधूरा है।
हर बार ही विवश कर दी जाती हूं
अपने ही सामने
अपने सृजन को मिटते
देखती रह जाती हूं।
हर बार ही शोक मिटने से पहले
थोप दी जाती है
एक नई कोख।
पुत्र जन्म की खुशियां
फिर से मननी शुरू हो जाती है।
एक बार फिर से
उमर आता है वात्सल्य
अजन्मा के प्रति
जिसे देखा तक नहीं।
- तरु श्रीवास्तव

गुरुवार, 2 नवंबर 2017

मृत्यु के पश्चात
पत्नी की मृत्यु के पश्चात
बड़े लाड़-प्यार से
पाल-पोसकर बड़ा किया था अपनी बिटिया को
आज अकेले ही कर रहे थे सारे नेग-चार
उसके ब्याह के
पत्नी की छायाचित्र के साथ।
किसी ने भी विधुर होने के कारण
नहीं माना था उन्हें अशुभ
शुभ कार्यों के लिए त्याज्य।
कुल डेढ़ बरस ही तो हुए थे
अर्धांगिनी को आये हुए
जब छह महीने की बिटिया को छोड़ वो गयी थी
स्वर्ग सिधार।
तब बिना विचलित हुए ही कर डाला था एक प्रण
नहीं करूंगा दूसरा विवाह
एकाकी ही बिता दूंगा संपूर्ण जीवन
कर डालूंगा अपनी सारी इच्छाओं का बलिदान।
और पत्नी की स्मृति के सहारे ही
काटा लिया पूरा जीवन
सबने दिया उन्हें देवता तुल्य सम्मान।
क्या एक जननी को भी मिल सकता है इतना सम्मान
बेटी को अकेली पाल-पोसकर बड़ा करने के लिए?
क्या उसे भी माना जा सकता है इतना शुभ
कि वह भी कर सके सारे नेग-चार
उसके ब्याह के
अपने पति के छायाचित्र के साथ
उसकी मृत्यु के पश्चात?
-तरु श्रीवास्तव